मंगलवार, 26 दिसंबर 2023

प्रेमचंद. हिंदी-उर्दू साहित्य के आकाश का न बुझने वाला सितारा/Dr. Ranjan Zaidi


       नौबत राय यानि मुंशी प्रेमचंद. हिंदी-उर्दू साहित्य के आकाश  का   बुझने वाला  एक  ऐसा  सितारा जो साहित्याकाश  में  हमेशा  जगमगाता  रहेगा
     प्रेमचंद की दैहिक रूप से मृत्यु  अक्तूबर, 8,1936  में  हुई  थी  किन्तु कथाकार प्रेमचंद तो  आज भी जीवित है. दार्शनिक दृष्टि से देखें तो  कहेंगे की  देह  और  कर्म में अंतर होता है. वैयक्तिक  देह  नश्वर है, उसके कर्म जीवित रहते हैं. कर्म के दर्शन को मानें तो आज भी हम प्रेमचंद  के उपन्यासों (सेवासदन से लेकर मंगलसूत्र  तक) को अपनी स्मृति के वाचनालय में सहेजे हुए हैं.
     यहां महत्वपूर्ण बात यह है कि प्रेमचंद की पत्नी शिवरानी देवी* की भूमिका प्रेमचंद के जीवन में अविस्मरणीय है क्योंकि वह उनकी रचनाओं का एक ऐसा पात्र-पिंड हैं जो अपने विस्फोट से ऐसे पात्रों को जन्म देता रहा जो औपन्यासिक फलक पर फैलकर कालजयी हो गए. वे भूमिकाएं जो पात्रों के रूप में शांता, सुमन निर्मला, मनोरमा, सोफिया, सकीना, धनिया और मालती के नामों के साथ उपन्यासों में निभाते हुए किसी किसी तरह से जीवित रहीं, वे समय और काल के गर्भ में जीवंत हो गयीं. जब-जब उनका पुनर्जीवन हुआ  तब-तब वे अंकुरित हुईंसामाजिक परिवेश में अपनी-अपनी भूमिकायें निभाने में सक्रिय हो गईं.
   शिवरानी देवी ने अपने  सामाजिक जीवन और साहित्य-सदन के अध्ययन लेखन कक्ष में जो जगह खालीकर पति नौबत राय यानि मुंशी प्रेमचंद को दिया था, वही सदन पति की साहित्यिक रचनाओं का घर बन गया जिसमें उनके पात्रों में कृष्ण चन्द्र ने जन्म लिया, अमरकांत  और  रमाकांत, जालपा  पैदा हुये, गोबर जैसे पात्र की भूमिका को भला  कौन  भूल  सकता  है.
      उस घर में आध्यात्मिकता  तो थी लेकिन  भ्रम  का  निवास भी  पूर्वत  बना  हुआ था.  घर की परम्पराएं  कबीर पंथी  तो थीं लेकिन  रचनाएँ तत्कालीन  महाजनी साहित्य-धारा से भिन्न  थीं. एक ओर  जहाँ  सांस्कृतिक  विरासत  में  बदलाव  जन्म ले रहा था. वहीं सामाजिक राजनीतिक  व्यवस्था की ज़मीन से बग़ावत की कोंपलें  फूट रही थीं.  जागरण  (जनवरी 15, 1934) के सम्पादकीय में प्रेमचंद ने लिखा, 'संस्कृति अमीरों का, पेट भरों का, बेफ़िकरों  का व्यसन  है. ...यह संस्कृति केवल लुटेरों की संस्कृति थी जो राजा बनकर, जगत-सेठ बनकर जनता को लूटती थी... साम्प्रदायिकता सदैव संस्कृति की दुहाई दिया करती है। ..(वह) सिंह की खाल ओढ़कर आती  है.*  प्रेमचंद  का  विचार था  कि विश्व की आत्मा के अंतर्गत ही राष्ट्र या देश होता है और इसी आत्मा की  प्रतिध्वनि है 'साहित्य'.  वह  हिन्दू राष्ट्र  निर्माण करने के पक्ष में नहीं थे. *
       इसके बावजूद प्रेमचंद के समय में लिखे गए साहित्य की हिन्दू स्त्रियां बहनें हैं, बीवियां हैं, नंदनें  हैं, सासें हैं और मुस्लिम  औरतें  वेश्याएं  हैं, ईसाई कुलटाएँ  हैं. बात आगे  बढ़ी तो हिंदी के लेखक भी कालांतर  में हिन्दू  हो  गए, मुस्लिम पात्रों  को अछूत बनाकर बाहर का रास्ता दिखा दिया . जिन्हें रखा, उन्हें कोठों  से उठाया, ईसाइयों को पतित पात्र  बनाकर  अपने साहित्य के ऐवानों  में रख लिया.*
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      तत्कालीन  राजनीतिक  और सामाजिक  परिवर्तन के बीच परिस्थितियां  भी  बदल रही थीं. इसका ज़िक्र प्रेमचंद  ने मुंशी दयाराम निगम को भेजे अपने एक पत्र में किया था,'उर्दू में अब गुज़र नहीं है. यह  मालूम  होता  है  कि बालमुकुंद गुप्त  मरहूम की तरह  मैं  भी हिंदी  लिखने में ज़िन्दगी सर्फ़ कर दूंगा. उर्दू  नवीसी  में  किस हिन्दू को फैज़ हुआ जो मुझे हो जायेगा.* इसके बावजूद तत्कालीन बदलती विचारधारा ने जब कथाकार प्रेमचंद का क़लम थामा तो हिन्दू, मुस्लिम पात्रों ने उन्हें घेर लिया और खुशनसीबी यह कि वह अपने पात्रों से कभी दूर नहीं जा सके. उर्दू से  उनका  रिश्ता  कभी  टूट  नहीं  सकायह  था  प्रेमचंद को महान बनाने वाला वह जज़्बा जिसने उनके व्यक्तित्व को विशालता के सर्वोच्च शिखर तक पहुंचाने में संकोच से काम नहीं लिया.
      आचार्य चतुरसेन  शास्त्री  ने एक पुस्तक लिखी, 'इस्लाम का विष-वृक्ष'.
      प्रेमचंद को पुस्तक   पढ़कर  बहुत  बुरा  लगाजैनेन्द्र  को पत्र लिखा, 'इन चतुरसेन को क्या हो गया है कि  'इस्लाम का विष-वृक्ष' लिख डाला. उसकी एक आलोचना तुम लिखो और वह पुस्तक  भेजो. इस कम्युनल प्रोपेगंडा का ज़ोरों  से  मुक़ाबला  करना  होगा और  यह ऋषभ  भला  आदमी  भी  इन चालों  से  धन  कमाना  चाहता है.*
      यह सच है कि मुंशी प्रेमचंद  पीएन ओक के हिंदुस्तान के समर्थक नहीं थे, वह थे नए जनतंत्र के समर्थक. उनके साहित्य  में हमें ऐसा ही जनतंत्र दिखाई भी देता है. लेकिन  क्या तत्कालीन  साहित्य के  मठाधीश  दिग्गज  ऐसे हिंदुस्तान की रचना में दिलचस्पी ले रहे थे?  हिंदी प्रदीप के मई 1882 के अंक 8 में धुरंधर हिंदी के विद्वान साहित्यकार  महावीर प्रसाद द्वेदी लिखते हैं, 'कचहरियों में उर्दू अपना दबदबा जमाये हुए है. अपने सहोदर पुत्र मुसलमानों के सिवा हिन्दू जो उसके सौतेले पुत्र   हैं, उन्हें  भी ऐसा फंसाये रखा है  कि  उसी के असंगत प्रेम में बंध ऐसे महानीच निठुर स्वभाव हो गए हैं कि अपनी निजी जननी सकल गुड़ आगरी नागरी की ओर नज़र उठाये भी अब नहीं  देखते.'
      हिंदी  के साहित्यकार  श्रीधर पाठक भला कैसे चुप रहते, लिखा,  'हिंदी  हिन्दुओं  की ज़बान,  बेजान. उर्दू से कटाये  कान. कमर टूटी हुई, लाठी पुरानी हाथ में, बे  मदद, बे  आक़ा. मुसीबतज़दा, जगह-जगह मारी  फिरती  है. शेर कहते हैं,                
अफ़सोस सद अफ़सोस कि हिन्दू ये बेशुमार,
उर्दू    के  बद-फरेब    से   करते   गिला  नहीं.

इस पर  पंडित प्रताप नारायण मिश्र  ने भी फटाक  से  एक नारा जड़ दिया-
जपौ  निरंतर एक जबान,
हिंदी   हिन्दू    हिंदुस्तान.

    प्रेमचंद के पहले उपन्यास  (धनपतराय उर्फ़ नवाबराय इलाहाबादी) किशना था. असरारे माबिद  उनका दूसरा उपन्यास था. उनका  हिंदी  उपन्यास 'प्रेमा' एक मौलिक  कृति है. यह कृति  हम खुरमा हम-सवाब  का अनुवाद नहीं है क्योंकि इस उर्दू उपन्यास के पात्रों  में नए पात्र जोड़े  गए हैं जो मूल उर्दू उपन्यास में नहीं हैं. नियमानुसार अनुवादक  मूल कृति में परिवर्तन नहीं कर सकता है. इसे  प्रेमचंद  ने हिंदी  में ही  नए सिरे से लिखा है. इसी  तरह प्रेमाश्रम और सेवासदन  भी उर्दू  पांडुलिपियों का  अनुवाद नहीं  हैं.  वे हिंदी  की  मौलिक कृतियाँ  हैं.
  
        प्रेमचंद  को अनूदित रचनाएँ पसंद थीं. विक्टर ह्यूगो के ला मिज़रेबल  ग्रन्थ  का  वह अनुवाद करना  चाहते थे (हालाँकि अपने समय के जासूसी कथाकार दुर्गा प्रसाद खत्री  इस उपन्यास का 1914-15 में अभागे का भाग्य शीर्षक से अनुवाद कर चुके थे). इसके बावजूद उन्होंने  निगम को एक पत्र लिखकर मालूम किया कि  क्या किसी ने इसका उर्दू में अनुवाद किया है? उन्होंने  अपनी  इच्छा  व्यक्त करते हुए पत्र में लिखा कि वह इस काम में जुटना चाहते हैं. 'साल भर का काम है  किसी भी तरह से पता लगाकर बताइये.*

       साम्यवादी  विचारधारा  वाले रोमा रोलां  की विचारधारा से भी प्रेमचंद  बहुत प्रभावित थे. उसका विचार था कि हम क्रांति और प्रगति के साथ रहेंगे लेकिन आज़ाद मानव बनकर । उर्दू साहित्यकार  रतन लाल सरशार से भी उनकी गहरी दोस्ती थी. उनके  बारे  में तो वह कहा करते थे कि सरशार से तो मुझे तृप्ति ही नहीं होती थी. उनकी सारी रचनाएँ   मैंने पढ़ डालीं.* उन्होंने पाश्चात्य लेखकों में डिकेंस, इलियट, थैकरे, अनातोले फ़्रांस, गाल्सवर्दी, रोमाँ रोलां, चेखव, गोर्की, तुर्गनेव और टॉलस्टाय जैसे दिग्गज लेखकों की रचनाओं का गंभीरता से अध्ययन  किया था. ये वे लेखक  थे जिनके  साहित्य  का  प्रेमचंद के साहित्य पर गहरा प्रभाव पड़ा था.

      प्रमाण के रूप में हम उपन्यास प्रेमाश्रम  पर टॉलस्टॉय  की रचना रिज़रेकशन को प्रस्तुत कर सकते हैं. कमाल  की बात यह है कि प्रेमचंद  ने तब तक रिज़रेकशन पढ़ी ही नहीं थी. वह  अपने बयान में एक जगह कहते  हैं कि बिना पढ़े ही यदि  प्रेमाश्रम में रिज़रेकशन के भाव गए हैं तो यह मेरे लिए गौरव की बात है.'  उन्होंने  कहा कि 'मैं अपने प्लॉट जीवन से लेता हूँ, पुस्तकों से नहीं और जीवन सारे संसार में एक है.*

      इंद्रनाथ मदान के एक पत्र (दिसम्बर 26,1934) का उत्तर  देते हुए प्रेमचंद  स्वीकारते हैं कि उन पर टॉलस्टाय और  विक्टर ह्यूगो का असर  रहा है और रोमाँ  रोलां का भी. उनका  मानना था कि 'नोच-खसोट से कीर्ति नहीं मिलती. कीर्ति बहुत दुर्लभ वस्तु  है  और मैं इतना बड़ा मंद-बुद्धि नहीं  हूँ कि  इधर-उधर से तर्जुमे  करके  अपनी कीर्ति बढ़ाने का प्रयत्न करूँ.
 
      यह बात तो स्वीकार करनी चाहिए कि प्रेमचंद के वैचारिक नज़रिये में जो विश्वास पाया जाता है और मज़बूत पकड़ भी, वह  पाश्चात्य साहित्य के गहन अध्यन के कारण  ही मुमकिन है. आरोप-प्रत्यारोप  तो  होते  ही  रहेंगे. अपने समय के विवादित साहित्यकार श्री अवध उपाध्याय  ने  सरस्वती पत्रिका में प्रेमचंद के उपन्यास रंगभूमि को थैकरे कृत उपन्यास वैनिटी फ़ेयर का चरबा* बताया. यह  एक गंभीर  आरोप था.  श्रीअवध  उपाध्याय के इस सनसनीखेज़ धमाके से प्रेमचंद आहत हो गए लेकिन उनके आत्मविश्वास ने उनका साथ नहीं छोड़ा। प्रेमचंद ने खंडन में कहा, 'यह संभव ही नहीं है. थैकरे का उपन्यास  वैनिटी फ़ेयर  एक सामाजिक उपन्यास है जबकि रंगभूमि मुख्यतः एक राजनीतिक उपन्यास है. प्रेमचंद ने सुझाव दिया कि साहित्यकार बड़े साहित्यकारों की कृतियों का अध्ययन करें क्योंकि हमारे बीच  चार्ल्स डिकेंस तो हैं, किन्तु कोई थैकरे, चार्ल्स मीड, मेरी कार्ली और जार्ज इलियट नहीं है.

      प्रेमचंद  दुनिया के साहित्य में यूँही बड़े नहीं हुए, वह थैकरे से भी बड़े महान  साहित्यकार इसलिए हुए कि थैकरे के उपन्यासों के पात्र समाज के उच्च-वर्ग  उच्च मध्यवर्ग की आवाज़ बनते थे जबकि प्रेमचंद के लेखन में निम्न-वर्ग से सम्बंधित सामाजिक समस्याओं का एक सैलाब था, आंदोलन की भावी रूपरेखा थी, एक तरह का सामाजिक, आर्थिक राजनीतिक इंक़लाब था जिसने प्रेमचंद को बेहद बुलंदियों तक पहुंचा दिया.
       
   जैसा  कि  ऊपर कहा जा चुका है कि प्रेमचंद  का उपन्यास सुखदास,  जार्ज इलियट के उपन्यास साइलस मार्नर का हिंदी रूपांतरण है लेकिन पढ़ने पर लगता है कि यह एक भारतीय परिदृश्य पर लिखी गई कृति है. बात यह है कि जार्ज इलियट और मुंशी प्रेमचंद  के व्यक्तित्व कृतित्व में बहुत बड़ा अंतर नहीं था. दोनों की जड़ें ज़मीन से जुडी हुई थीं.  दोनों  का जन्म  देहात में हुआ था, सोच एक जैसी थी.  दोनों परिष्कृत साहित्य के कुशल अध्येता थे. भाषा  पर अधिकार था. दोनों  के नाम असली नहीं थे. विश्व  साहित्य में दोनों अपने उप-नामों से ही जाने गए, प्रतिष्ठित हुए. इलियट को चर्च से और प्रेमचंद को मंदिरों से कोई विशेष लगाव नहीं था. लेकिन  दोनों की  अनास्था में  भी आस्था का प्रदर्शन था.  मानस के  प्रति दोनों में  गहरी सहानुभूति  थी. अंतर मात्र  इतना था कि इलियट की कृतियों का सफर गाँव  से शहर की तरफ जाता था और प्रेमचंद का शहर से गाँव की तरफ. जो नीति  के विरुद्ध था  वह था प्रकृति के विरुद्ध कार्य करना. इसमें  वे  विनाश की सम्भावना  अधिक  देखते  थे. दोनों  अपने  देसी  दोस्तों से प्रभावित रहे थे. प्रेमचंद,  दयाराम  निगम से प्रभावित  थे तो  इलियट  अपने  अभिन्न  मित्र  जॉन  चैपमैन  से. सभी  सामान  कला-प्रेमी थे.*  
      प्रेमचंद, इलियट से इस क़दर प्रभावित थे कि जब उन्होंने 'साइलस मार्नर उपन्यास पढ़ा तो उसका अनुवाद करने में उन्होंने  देर नहीं की. अनुवाद  पूरा करने  तक उन्होंने अपने इर्द-गिर्द के माहौल को खालिस भारतीय बनाये रखा. जब सुखदा के नाम से यह उपन्यास प्रकाशित हुआ तो पाठक चकित  रह गए. सबको  लगा कि यह तो भारतीय परिवेश की एक सशक्त औपन्यासिक कृति है.


      विचारों में सामान  विकासशीलता  के होते  पात्रों को खुलें में सांस लेने की पूरी आज़ादी थी. सामान  विशेषता  ने ही दोनों को एक-दूसरे से प्रभावित किया था. इनके अतिरिक्त प्रेमचंद  द्वारा ओपेंद्र नाथ अश्क को भेजे गए पत्र से पता चलता है कि वह  रोमाँ  रोलाँ  से भी कम प्रभावित नहीं थे. उनके अनुसार,'रोमान रोलाँ  का विवेकानंद ज़रूर पढ़ो.* हंस के मार्च 1934 की हंसवाणी में प्रेमचंद ने अपने विचार व्यक्त करते हुए लिखा कि 'उनके प्रसिद्ध  उपन्यास जान क्रिस्टोफर के विषय में तो हम कह सकते हैं कि एक कलाकार की आत्मा का इससे सुन्दर चित्र उपन्यास साहित्य में नहीं है.
       बड़ी  अजीब बात है  कि मुंशी  प्रेमचंद ने कहीं भी फ़्रांसिसी साहित्यकार अनातोले फ़्रांस  की  प्रशंसा नहीं की है. हालाँकि उन्होंने  फ़्रांस की अमर कृति थायस का अहंकार रूपांतरित किया था  वह भी तब जब 1925 में रामचंद टंडन ने उनसे ऐसा करने के लिए कहा. लेकिन अपने सम्पादकीय में प्रेमचंद ने इस कृति और फ़्रांस के साहित्य की कहीं तक प्रशंसा अवश्य  की,  यह बात और है कि उस सम्पादकीय में प्रेमचंद का साहित्यकार कहीं नज़र नहीं आता है. ठीक इसके  उलट प्रेमचंद  रूसी साहित्य की प्रशंसा किये नहीं थकते थे.
      एक जगह वह लिखते हैं, कहानी-उपन्यास में  रूस  का  मुक़ाबला  कोई देश नहीं कर सकता. चेखब  छोटी कहानियों का बादशाह है. तुर्गनेव  के  क़लम में बड़ा  दर्द है. गोर्की  किसानों- मज़दूरों का  अपना लेखक है. टॉलस्टाय सर्वोपरि  है. उसकी  हैसियत शहंशाह की सी है. 25 बरस  पहले  भी  थी  और आज भी है. टॉलस्टाय  के  आगे तुर्गनेव बौना है.*
      टॉलस्टाय  के साहित्य  ने प्रेमचंद को सोचने  का  एक नजरिया दिया  था. बोल्शेविस्ट  उसूलों  ने प्रेमचंद को सहमति का अवसर दिया बताया कि किसान रूस का हो या भारत का, सरकार से अपने  हक़ की मांग क्यों नहीं मनवा सकता? वह  क्यों बग़ावत  नहीं कर  सकता  है?
      रूस  में किसानों को जगाने के लिए टॉलस्टाय  सक्रिय थे, गोर्की  और चेखब थे, तुर्गनेव थे लेकिन  भारत में  प्रेमचंद सरीखे कितने कथाकार थे? लेखन का कार्य तो आज भी लोग कर रहे हैं, लेकिन आज भारत में किसान आत्महत्याएं कर रहा है, अपनी फसलों को सड़ने के लिए  फ़ेंक रहा है, उसका भविष्य  अंधकारमय हो चुका  है. आज  साहित्य  में कोई प्रेमचंद नहीं रहा है जो किसानो के साथ कंधे से कन्धा मिलाकर उनके लिए  इंक़लाब की पृष्ठभूमि तैयार करे.
      आज भी  प्रेमचंद  अकेले हैं. जो लोग हैं, वे  पुरस्कारों  के लिए दौड़ रहे हैं, फेसबुक पर आत्मप्रचार कर रहे हैं. किसान  हथेलियों  में मुंह छुपाकर  भरभराकर  बे आवाज़ सुबुक रहा है, कि कोई उसका रोना सुन ले. प्रेमचंद ने अपने समय  में  धरती  की गंध सूंघ ली थी और पूस की एक रात को इतना तवील बना दिया था कि उस समय के किसानों की मिटटी आजतक आंसुओं से भीगती रहती है. आज कोई  है जो  उठ कर इंक़लाब का नारा बुलंद  करे, धरती पुत्रों को उनका  हक़ दिला सके?
  प्रेमचंद पर विरोधियों  का आरोप था कि वह प्रोपेगंडा वृत्ति के साहित्यकार हैं.  मुसलमानों के लिए उनके दिल में  बहुत  जगह और  सम्मान है. उनके प्रति  सहानुभूति है. जबकि प्रेमचंद ब्राह्महण देवी-देवताओं  की अक्सर  निंदा करते  रहते हैं.  उनके साहित्य  से साम्प्रदायिकता  का लावा उबलता रहता है. इससे  वर्गीय कट्टरतावाद  को बढ़ावा मिलता  है.* 
   ऐसी  शिकायतें मूलतः वैष्णववादी आलोचकों को अधिक रहती थीं.  है. ऐसी खींचतान  और आरोप-प्रत्यारोप  उर्दू  साहित्य के आलोचकों के बीच के  एक वर्ग  की भी रही है.  इनमें एक वर्ग मार्क्सवादियों का भी था, जो अपने सिवा  किसी दूसरे वर्ग को प्रगतिशील विचारधारा का नहीं मानता  था. इसी तरह हिंदी में एक वर्ग संकीर्ण जातिवादी आलोचकों  का था.  प्रेमचंद को उस समय इस तरह के अनेक वर्गों  का सामना करना पड़ रहा  था।  इसके बावजूद कई वर्ग ऐसे थे जो उनकी विचारधारा के समर्थक भी थे और वाद-विवादों से मुक्त रहने में अपना भला भी देखते थे.  सुधारवादी विचारधारा का आलोचक वर्ग प्रेमचंद का  प्रशंसक  तो था किन्तु दूसरा वर्ग उन्हें युग का मसीहा समझने लग गया था.
     डॉ, नगेंद्र से जब मैंने कथाकार जगदीश चतुर्वेदी के घर पर  (हिंदी साहित्य के इतिहास का पुनर्मूल्यांकन पुनर्सम्पादन के कार्य के दौरान)  पूछा  कि क्या यह सही है कि वैष्णववादी आलोचकों में आप सहित पंडित रामकृष्ण शुक्ल 'शिलीमुख', ठाकुर श्रीनाथ सिंह पं. ज्योति प्रसाद  मिश्र  'निर्मल',  आचार्य नंददुलारे वाजपयी  जैसे प्रबुद्ध साहित्यकार शामिल थे?  उन्होंने कहा, 'तुम  डॉएहतिशाम  को भूल गए?  डॉ. एहतिशाम अहमद नदवी  नाम था उनका. वह तो  वैष्णववादी थे, फिर क्यों आलोचक थे?'
      मुझे पता  थाडॉ. नगेंद्र  प्रेमचंद के आलोचकों में माने जाते हैं. मैंने उनका एक निबंध प्रेमचंद : एक सर्वेक्षण  पढ़ा था. उसे डॉ.  मदान ने प्रेमचंद  प्रतिभा में प्रकाशित किया था. उस निबंध को पढ़कर मुझे लगा था कि प्रेमचंद  के  सम्बन्ध में उनकी स्थापना भ्रामक सी है. इस समय  भी उन्होंने  सम्बंधित विषय से किनारा काट लिया था. कुछ  इसी तरह वर्षों पहले डॉ. नामवर सिंह ने  मुझे जामिया मिलिया इस्लामिया में हिंदी प्रवक्ता पद के साक्षात्कार के समय हतप्रभ कर दिया था. एक दिन अपने ही चेंबर में उन्होंने  मुझे बताया  कि वह तो मुझे ही चाहते थे लेकिन  जामिया मिलिया का प्रशासन विभाग अड़ंगे डालने लगा था. मामला  शिया-सुन्नी का गया था. मैं नहीं जानता था कि यहां भी  नियुक्तियों में भेदभाव बरता जाता है. क्या ऐसा  भी होता है? सुनकर आश्चर्य हुआ था. मेरे  बड़े भाई वहीं  के छात्र रहे थे. मामू इतिहास के  सीनियर  प्रोफ़ेसर  हुआ करते थे. उनके  पुत्र  प्रोफ़ेसर  मुशीरुलहसन  तब ऐक्टिंग वीसी  थे.  उसी  विश्वविद्यालय  में तब  हिंदी  विभाग के हेड मुजीब रिज़वी (शिया) थे, पैनल में भी एक-दो शिया थे. यह  दर्शन  मेरी समझ  में  नहीं आया. बाद में अंदरखाने से निकली खबर से मालूम हुआ कि नियुक्ति नामवर सिंह  के भाई  काशीनाथ सिंह  के सिफारिशी  कैंडिडेट  की  हुई. डॉ. नामवर सिंह के विचारों से उगला  हुआ वह ज़हर  मुझे आज तक  बेचैन रता रहता है.     
      मनुष्य जब अपने किरदार, व्यवहार और अपनी योग्यता से बुलंदियां छूता है, तो देवताओं के भी सिंहासन  डोलने लगते हैं, वही मनुष्य जब गिरता है तो समाज की आँखों से भी गिर जाता है.  मनुष्य  तब बुलंदियों पर पहुँच जाने के उपरांत भी  न पूजा के  योग्य  रहता है और न ही नीचे गिर जाने पर  घृणा  के योग्य. प्रेमचंद  यह बात समझते थे. यदि वह ईमानदार  न  होते तो यथार्थवादी कथाकार भी नहीं हो सकते थे. यहाँ अत्यंत महत्वपूर्ण बात यह है कि कुछ लोग इतिहास बनाते हैं, कुछ इतिहास पढ़ते हैं  लेकिन  ऐसे नायक समाज, देश  और दुनिया में फिर भी अलौकिक मानव  या देवता नहीं बन पाते  जिन्हें हम अपने समाज, देश और इतिहास में  किसी न किसी रूप में जन्म लेते और मरते देखते रहते हैं, सोचते हैं  इनमें अलौकिकता नज़र नहीं आती. इस सच्चाई से भी हम इंकार नहीं कर सकते कि सुनी हुई परंपरागत गाथा  को जब तुलसीदास रामचरित मानस में शब्दों से पिरीते हैं तो अलौकिक राम, लौकिक भगवान पुरुषोत्तम राम में परिवर्तित हो जाते हैं. ऐसे में राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी को प्रेमचंद के उपन्यास रंगभूमि क़े किरदार सूरदास और कर्मभूमि के किरदार अमरकांत को आलोचक राष्ट्र-नायक कैसे  मान सकते थे. मानते तो ये पात्र पौराणिक होते ?
      बात समझ के दायरे में चुकी थी कि उपन्यास के माध्यम से प्रेमचंद के पात्र  आलोचकों की प्रकृति के अनुकूल नहीं हैं. इसलिए उन्होंने  पूस की रात में  हल्कू को खुले आकाश के नीचे  ला खड़ा किया. आलोचक  संवेदनशील हुए. होरी के प्रति सहानुभूति  दिखाई  किन्तु व्यवहार में वे उसकी मदद को नहीं आये. ही जी तोड़ मेहनत करने के बावजूद उसकी एक गाय की इच्छा को ही  वे पूरा कर सके. इसी तरह जाड़े  की  कड़कड़ाती सर्दी से खुद और जबरा को बचाने के लिए हल्कू एक कम्बल तक खरीद सका. हाँ!   लोगों को  हल्कू के जबरा कुत्ते से सहानुभूति अवश्य हुई क्योंकि वह जीवित था और नीलगायों के खेतों में घुसने पर भौंकने लगता था. उसे तो कोई भी ज़मींदार अपने खेतों की निगरानी के लिए रोटी के टुकड़ों पर रख सकता था, लेकिन हल्कू ?  वह  मर  चुका  का था.
      कर्मभूमि के लिखने  तक प्रेमचंद समाज और समाजों की मानसिकता को पूरी तरह से समझ चुके थे.  वह  समझ चुके थे कि भारत का समाज सुविधा भोगी है. वह  दूसरों के पचड़ों में अपनी जान जोखिम में नहीं डालना चाहता है.. सोच के ऐसे ही विवर के बीच उन्हें ठाकुर श्रीनाथ सिंह का एक लेख पढ़ने को मिला, घृणा के प्रचारक प्रेमचंद।  दिसंबर 1933 (सरस्वती) के अंक में प्रेमचंद द्वारा लिखित कहानी सद्गति  की आलोचना की फुलझड़ियाँ छोड़ते हुए ठाकुर श्रीनाथ सिंह  ने प्रेमचंद पर आरोप लगाया था कि  यदि प्रेमचंद इस युग के प्रतिनिधि मान  लिए जाएँ तो अबसे 50 वर्ष बाद पाठक उनकी रचनाओं को पढ़कर 1932  के सामाजिक जीवन के बारे में क्या कहेंगे, यही कि उस समय हिन्दुओं खासकर ब्राहम्हणों का जीवन घृणा का जीवन था. वे  निंदनीय थे, ज़ालिम थे, निर्दयी थे, कट्टर थे, दयाहीन थे और पाखंडी भी.
      पं. ज्योति प्रसाद  मिश्र  'निर्मल' ने भी भारत  में एक लेख लिखा लेकिन आक्रमण कूटनीतिक था.  प्रेमचंद  चुप नहीं रहे, जवाब दिया,'हम कहते हैं कि यदि हममें इतनी शक्ति होती तो हम अपना सारा जीवन हिन्दू जाति को पुरोहितों, पुजारियों, पंडों और धर्मोपजीवी कीटाणुओं से मुक्त करने  में अर्पण कर देते। हिन्दू जाति का सबसे घृणित कोढ़, सबसे लज्जाजनक कलंक यही टके-पंथी दल हैं जो एक विशाल जोंक की तरह खून चूस रहा है.*
      प्रेमचंद  को  लेकर  डॉ. नगेंद्र  की  कुछ  अपनी मान्यताएं थीं. उनके अनुसार भौतिक धरातल के नीचे जाकर आत्मा की अखंडता तक पहुँचने की उन्होंने ज़रुरत नहीं समझी , इसके अतिरिक्त यह उनके स्वाभाव की सीमा भी थी. प्रेमचंद के जीवन का मूल दर्शन ऐसा भौतिक मानववाद था जो उनकी चेतना के धरातल को व्यवहारिकता के बीच कभी दार्शनिक या आध्यात्मिक आवरण से नहीं ढका जा सका.* उनमें किसान, ज़मींदार मज़दूर-पूंजीपति, छूट-अछूत, शिक्षा-अशिक्षा आदि वाह्य-जगत के द्वंद्वों का जितना विस्तृत और सफल वर्णन है उतना श्रेय और प्रेय, विवेक और प्रवृति, श्रद्धा और क्रांति, कर्त्तव्य और लालसा और अंतर्जगत  के द्वंद्वों का नहीं.* 
      उनका विचार था कि  प्रेमचंद में 'बौद्धिक सघनता और दृढ़ता का आभाव है और उनके उपन्यासों के विवेचन आदि में एक प्रकार का पोलापन मिलता है.* डॉनगेंद्र क्या कहना चाहते थे? क्या यह कि उन्होंने  गोदान की कथा को रामकथा जैसा नहीं बनाया?  सेवा  सदन  को साकेत जैसा नहीं बनाया? उनकी सुमन को उर्मिला जैसा क्यों नहीं बनाया जो अपने गजाध के विरह में 14  वर्षों तक आंसू बहाती लेकिन प्रेमचंद की सुमन ने आंसू की एक बूँद भी नहीं गिराई . क्यों ? की उपन्यास  तो प्रेमाश्रम  को भी भक्ति के माधुर्य और श्रृंगार रस से शराबोर महाकवि  देव के काव्य  के रूप में आनंद लेना चाहते थे. मतलब साफ़ था  कि  डॉनगेंद्र प्रेमचंद को गंभीरता  से  नहीं लेना चाहते थे. यदि ऐसा होता तो वह सेवा सदन को पढ़तेगोदान  और  होरी की पीड़ा को महसूस करते. वह महसूस करते कि आनंदवाद के वृत्त के भीतर जो निष्काम-कर्म, त्याग, समाज सेवा , स्वावलम्बन और प्रेम के भावों का ऑक्सीजन बंद है  उसे कैसे बाहर लाकर गरीब अवाम को नई सांसें दी जाएँ. क्योंकि प्रेमचंद इस ऊर्जा से सभी को जीवन देना चाहते  थे  जिसमें केवल कर्म की भावना थी बल्कि दूसरों को खिलाकर खाने का उत्साह भी था. इसी  से तो विकास  की  पृष्ठिभूमि तैयार होती है.* प्रेमचंद के अनुसार  खाना और सोना जीवन नहीं है. जीवन है उस लगन  का  जो  हमें बढाकर आगे ले जाता है*. 

      अकर्मण्य  मनुष्य  आनंद की अनुभूति कैसे कर सकता है?  कर्मभूमि  का पात्र अमरकांत कहता हैआदमी का जीवन केवल जीने और मर जाने के लिए नहीं होता , धन संचय उसका उद्देश्य है. जिस दशा में हूँ, वह  मेरे लिए असहनीय हो गई है. मैं एक नए जीवन का सूत्रपात करने जा रहा हूँ जहाँ मज़दूरी लज्जा की वास्तु नहीं। जहाँ स्त्री पति को केवल नीकजए नहीं घसीटती, उसे पतन की और नहीं ले जाती बल्कि उसके जीवन में आनंद और प्रकाश का संचार करती है.*

      प्रेमाश्रम  में पात्र प्रेमशंकर के द्वारा प्रेमचंद कहना चाहते हैं कि सही लोकसेवा के लिए सत्ता-संपत्ति का लोभ संवरण नहीं करना चाहिएपैतृक संपत्ति की विरासत या माया शंकर द्वारा हासिल सम्पत्ति  का त्याग करना इस विचार को सही ठहराता  है. प्रेमचंद  की दृष्टि में ऐसे नज़रिये को ही कर्म-योग कहते हैं. अपने उपन्यास  गोदान  के एक पात्र प्रोफ़ेसर मेहता के माध्यम से प्रेमचंद  यह बताने का प्रयास करते हैं कि 'प्रवृत्ति  और निवृत्ति दोनों बीच में जो सेवा-मार्ग है, चाहे उसे कर्मयोगी ही कहो, वही जीवन को सार्थक कर सकता हैवही  जीवन  को  ऊंचा  और पवित्र बना सकता है.*

      डॉ. एहतिशाम अहमद नदवी का ज़िक्र ऊपर किया जा चुका  है. वह प्रेमचंद के कट्टर आलोचकों में शुमार  किये जाते हैं. उनके  अनुसार प्रेमचंद मूलतः हिन्दूवादी  संस्कृति और सभ्यता के लेखक थे. अपने जीवन में उन्होंने हिन्दू समाज  की  अभिव्यक्ति  को ही  अपना  उद्देश्य बनाया था. उनकी लोकप्रियता भी  हिन्दू अवाम  में इसीलिए अधिक थी डॉ. एहतिशाम अहमद नदवी का प्रेमचंद पर आरोप था कि उनके उपन्यास गोदान के देहातों से  मुस्लिम  पात्र  निकाल दिए गए हैं. जो है उसका चित्रण पढ़ने योग्य है, सिर मुंडा, दाढ़ी खिचड़ी और काना। मिर्ज़ा खुर्शीद के चरित्र में कहीं भी मुस्लिम सभ्यता और मुस्लिम  संस्कृति की  झलक नहीं आती.* 

      एक  कथाकार  होने  के नाते मैं कह सकता हूँ कि प्रेमचंद इस तरह के नज़रिये से शायद ही सोचते रहे हों. उन्होंने  तो समाज के विभिन्न वर्गों, समुदायों और समान जातीय पात्रों की निंदा की है उनमें ब्रह्म्हण भी थे, राजपूत भी, मुस्लमान भी थे तो ईसाई भी. तिरस्कार का हर वह पात्र था जो तिकडमी और  चारित्रिक पतन का शिकार था. ऐसे तो प्रेमचंद मात्र दलितों के लेखक कहलाये जायेंगे। इस सम्बन्ध में मार्कसवादी आलोचकों में त्रिलोकी नारायण दीक्षित और मुमताज़ हुसैन को एक मज़बूत पक्षावर आलोचक के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है

      डॉत्रिलोकी नारायण दीक्षित का मनना  था कि प्रेमचंद मार्कस्वाद के वस्तुवादी दर्शन से अधिक प्रभावित थे. उनका कहना था कि प्रेमचंद एक सच्चे जनवादी मार्क्सवादी कलाकार थे.* उनके विचार से मार्क्सवाद  का भौतिक दर्शन और निरीश्वरवाद उनके क़लम की स्याही में घुल सा गया था. उसके विश्व-बंधुत्व  की भावना प्रेमचंद के पूर्ण व्यक्तित्व में तैर सी गई थी.* इससे दो क़दम आगे बढाकर उर्दू-आलोचक मुमताज़ हुसैन का कहना था कि प्रेमचंद की आइडियालोजी हिनुस्तानी समाज में उस समेत तक मार्क्सिज़्म के साथ-साथ जीवित रहेगी और पराधीनता की कडुवाहटों के विरुद्ध लड़ने में सहायक होगी जब तक की साम्यवाद का विज्ञानं जो उन्नीसवीं शताब्दी की उपलब्धि है, मार्क्सवादको हिंदुस्तानी समाज में एक जीवितउर ठोस वास्तविकता और एक सभ्यता में समृद्धि करने वाली सर्जनात्मक शक्ति में परिवर्तित कर दे.* 

      इनके अतिरिक्त प्रेमचंद के विशेष प्रशंसकों में  बी.एस. वेसक्रवनी और उर्दू-आलोचक अब्दुल हमीद तथा प्रताप नारायण टंडन  का नाम उल्लेखनीय है. इंद्रनाथ  मदान हों या डॉ. राम विलास शर्मा, एहतिशाम हुसैन हों या  डॉ. कमर रईस, या इस परंपरा के अगले आलोचकों की लम्बी परंपरा, एक स्वर में इस बात की पुष्टि सभी  ने की है कि प्रेमचंद की महानता असंदिग्ध है. प्रेमचंद का उपन्यास  रंगभूमि और  गोदान हिंदी  साहित्य  के  इतिहास में अभूतपूर्व  और अद्वितीय है.

      गॉ  मँढ़वा,  लमही. कायस्थ परिवार के मुखिया मुंशी अजायब लाल, डाकखाने में क्लर्क. पत्नी श्रीमती आनंदी देवी  से तीन पुत्रियां हुईं. दो  दिवंगत हो गईं. एक की  पीठ  पर पुत्र जन्मा. ईश्वर का वरदान समझ कर  पिता  ने पुत्र का नाम धनपतराय रख दिया. कायस्थ परिवार  के इस कथित धनी पुत्र ने बड़े होकर अपनी कहानी क़ज़ाकी  और रामलीला के  पात्रों के साथ अपने बचपन को पुनः जीकर दोहराया है. पत्नी  शिवरानी देवी  ने  भी अपने ग्रन्थ में इसकी पुष्टि की है.*
     डाकखाने के क्लर्क मुंशी अजायब लाल के अचेतन मस्तिष्क में कहीं कहीं यह जिजीविषा अवश्य पनपती रही होगी कि काश! उनकी अपार सेवा  से  प्रसन्न होकर अँगरेज़ बहादुर उन्हें भी रायबहादुर के खिताब से नवाज़ते. इस तरह वह अपने पुत्र के नाम के आगे रायबहादुर या राय धनपत लाल या धनपतराय  जोड़ सकते. आगे चलकर अपनी हैसियत की हताशा ने उन्हें पुत्र को  राय लक़ब से जोड़कर इतना तो संतोष कर ही लिया कि उनके पुत्र की भावी पीढ़ी अब राय लक़ब से ही  पहचानी  जायेगी, भले वह भावी पीढ़ी सरकारी क्लर्क की ही क्यों रही हो
      धनपतराय  मूलतः एक औसत  निम्न  मध्यवर्गीय  आमदनी वाले सभ्यसुसंकृत परिवार के इकलौते पुत्र थेइसी परिवार में उनकी एक बहन भी थीवह अपने भाई को  'लालकहा कराती थीदादा जी यानि  गुरु सहाय लाल पेशे से  पटवारी थेबड़े  चाचा  कौलेश्वर  लाल पोस्ट ऑफिस में नौकर थे. उन्होंने अपने  भाइयों को भी वहीं नौकरियां दिलवा दीं थीं धनपतराय के एक अन्य चाचा  महावीर लाल खेती-किसानी करने में रूचि रखते थे.  बड़े चाचा कौलेश्वर लाल दुर्भाग्य से  30 वर्ष की उम्र में ही दिवंगत हो गयेतब उनकी विधवा युवा पत्नी  की गोद में एक बच्चा था आगे जाकर पारिवारिक कलह के कारण वह विधवा स्त्री अपनी ससुराल को छोड़कर  स्वतः ही मायके चली गई.
     जब मुंशी अजायब लाल  (यानि प्रेमचंद के पिता) 1886 में जमानिया पोस्टऑफिस में तैनात थे. परिवार उनके  साथ था. उन्हीं दिनों क़ज़ाकी  नामक एक डाकिया कमसिन धनपत के जीवन में गुरु बनकर दाखिल हुआ. क़ज़ाकी नन्हे धनपत को अपने कन्धों पर बिठाकर दूर तक दौड़ा करते थेइस गुरू की विशेषता यह थी कि 6 वर्ष की आयु में ही क़ज़ाकी अपने शिष्य को क्रन्तिकारी  कहानियां  सुनाने लगा था. क़ज़ाकी गुरु जी बताते थे कि सामंतवाद की जोंकें सर्वहारा की हड्डियों तक को चूस लेती हैं और यही सामंत वादी व्यवस्था मज़दूर से उसकी थाली ग़रीब से उसके जीने की आज़ादी तक छीन लेती है. धनपतराय से प्रेमचंद बनने तक और बहुत बाद तक भी उनके  चिंतन  पर इस तरह के सामंतवादी नज़रिये ने बहुत गहरा  प्रभाव छोड़ा. इसीलिए वह अपने गुरु जी को कभी नहीं भूल पाए. 1926 में यानि 40 वर्षों बाद जब धनपतराय यानी प्रेमचंद ने कहानियां लिखने की शुरुआत की तो उनकी पहली कहानी उनके गुरू जी  क़ज़ाकी को ही समर्पित थी और शीर्षक भी क़ज़ाकी  ही था.* यहाँ महत्वपूर्ण बात यह है कि कथाकार  मुंशी प्रेमचंद  के साहित्य की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उनके सम्पूर्ण साहित्य से उनके अपने ही जीवन को छानकर हर तरह के कथ्य को आसानी से निकाला जा सकता है.            
      माँ  आनंदी देवी   का   देहांत  1888  में हुआ थाधनपत  राय की उम्र तब मात्र 8 वर्ष की थी. मानस-पटल पर माँ की दुखद मृत्यु ने  गहरा असर छोड़ा था. निश्चय ही पुत्र  के लिए वह एक बड़ा सदमा रहा होगा. वर्षों तक वह अपनी  माँ  की स्मृति में डूबे नज़र आते दिखाई देते हैं. माँ की जब भी याद आती, बाहें  फैलाये माँ  लमही में ही कहीं  पुचकारती, गले लगाती और चूमती हुई मिल जाती थींधनपतराय का  बचपन  लमही के गली-गलियारों, ताल-तलैया के महनारों और मिटटी की धूलित फुंकारों के साये में बीता था.  दो वर्ष बाद 1890  में  मुंशी अजायब लाल ने दूसरी शादी कर ली. पुत्र के लिए  यह  एक और सदमा  थाइसकी गवाही भी उनकी कहानी 'प्रेरणा' देती है, जिसमें उन्हें आसानी से  झांककर  मोहन के रूप में देखा जा सकता है. माँ को याद करते हुए ही वह कभी अपने पात्र  मंसाराम की आत्मा में उतरते नज़र आते हैं तो कभी कर्मभूमि के पात्र अमरकांत के रूप में पीड़ा सहते हुए. इसी तरह कहानी घरजमाई  में वह हमें हरिधन के रूप में नज़र आते हैं, 
      वृद्ध पिता द्वारा युवा  स्त्री से अनमेल विवाह कर लेने की घटना हो या सौतेली माँ के साथ रहने का अनुभव, चाचा उदित नारायण लाल द्वारा किये गए पोस्टआफिस में ग़बन का मामला हो या  इलज़ाम साबित  हो जाने पर  उन्हें सात वर्षों का कारावास का हो जाना. सजा काटने के बाद  समाज का सामना कर पाने  से हताश उनका कहीं भूमिगत हो  जाना हो या फिर कभी दिखाई देना जैसी घटनाएंप्रेमचंद के साहित्य की सारी संगतियों-विसंगतियों के साथ किसी किसी रूप में मौजूद हैं.
      जब मुंशी अजायब लाल ने दूसरी शादी की थी तब  धनपतराय  मिशन स्कूल मेंवीं के छात्र हुआ करते थे.* संयोग से विमाता से उनके सौतेले पुत्र की खूब बनती थी. कालांतर में इसका नतीजा यह निकला कि जब प्रेमचंद ने कहानी  असरारे मआबिद लिखी तो लिखते  समय उन्हें कहानी की विमाता और विधवा सहेली के बीच होते रहे परस्पर संवाद  में  तमाम अनुभव काम आयेहम खुरमा हम सवाब  में भी असंतुष्ट स्त्रियों के संतुष्ट करने वाले साधनों पर रौशनी डाली गई है.. यहाँ विशेष उल्लेखनीय बात यह है कि प्रेमचंद  ने  अपनी  पहली  कहानी  गोरखपुर  प्रवास के दौरान ही लिखी थी.

       डॉ. कमर रईस की  पुस्तक 'प्रेमचंद का तन्क़ीदी मतालेआ',  (पृ.39) के अनुसार 1894 में मुंशी अजायब लाल तबादले के बाद जीमन पुर से गोरखपुर गए थे. यहीं की  रावत पाठशाला से धनपतराय ने अंग्रेजी की तालीम हासिल की. उर्दू शायर रघुपति सहाय फ़िराक़ गोरखपुरी द्वारा 'ज़माना' अख़बार  के प्रेमचंद विशेषांक में लिखे गए लेख के अनुसार धनपतराय गोरखपुर के एक मिडिल स्कूल में दाखिल किये गएइस  समय तक धनपत राय 14 वर्ष के हो चुके थे. विवादों से अलग रहें तो 15वें  वर्ष में उनका बनारस के क्वींस कालेज की नवीं कक्षा में दाखिला हो  गया  था. 1898 में धनपत राय  ने हाई  स्कूल  पास कर लिया था
   
      बीतते  समय  के  साथ  तत्कालीन  आजमगढ़  तहसील  के  जीमन पुर क़स्बे में पहुँचने तक  धनपतराय के स्वभाव में परिवर्तन आने शुरू हो गए थे. पिता मुंशी अजायब लाल का परिवार तबादले के बाद  यहाँ  डेढ़ रुपये मासिक किराये के मकान में रहने लगा था. यहां  धनपत राय को काफी समय तक रहना थाधनपत राय  को मकान में रहने के लिए बाहर खुलने वाली खिड़की वाला अकेला कमरा दिया गया था ताकि वह एकांत और खुली हवा में अपनी पढ़ाई पर ध्यान रख सकें. हालांकि  शिवरानी देवी इस मकान को निहायत गंदा बता चुकी हैं.* 
      1895  तक  प्रेमचंद अपनी ज़िम्मेदारियों को समझने लगे थे. पिता का हाथ हल्का करने के उद्देश्य से उन्होंने 7 रुपये माहवार की एक ट्यूशन इंगेज कर ली थी  5 रूपये  पिता देते थे. कालेज की पढाई का सिलसिला  जारी  था. आगे बढ़ने का जुनून  था . भले  ही पाँव में जूते हों, तन पर अच्छे कपडे हों, 'स्कूल से साढ़े तीन बजे छुट्टी मिलती थी.'      

             ‘
काशी के क्वींस  कालेज में पढता था. हेडमास्टर  ने  फीस माफ़ कर दी थी. इम्तेहान  सर पर थे. और मैं बांस  के फाटक पर एक लड़के को पढ़ाने जाया करता था. जाड़ों  के  दिन थे.4 बजे पहुँचता था. पढ़ाकर  छे बजे छुट्टी पाता. वहां  से मेरा घर देहात में 5 मील दूर था. तेज़  चलने पर भी 8 बजे से पहले नहीं पहुँच सकता थाप्रातःबजे  फिर घर से चलना पड़ता था.   वक़्त पर स्कूलपहुँचता. खाना खाकर रात को कुप्पी  के सामने  पढ़ने  बैठता और जाने कब सो जाता. फिर  भी  हिम्मत  बांधे  हुए  था.’*
          प्रेमचंद अभी 16 वर्ष के ही हुए थे कि पिता मुंशी अजायब लाल  ने उन्हें विवाह के बंधन में बांधने का संकल्प ले लिया. कुछ  समय बाद बस्ती  ज़िले की  मेंहदावल तहसील के गांव रमवापुर सरकारी के ज़मींदार की बेटी से मुंशी अजायब लाल ने अपने पुत्र की शादी कर दी.     
    धूमधाम  से शादी हुई. कई दिनों तक बारात वहीं ज़मींदार के यहां  जीमती रही. अंततः बारात ऊंटनियों पर  बाराती बहू को ब्याहकर उसकी ससुराल ले आये. स्वतंत्र  विचारों  वाली बहूबेगम  ने ऊंटनी से उतरकर पति का हाथ थामे मकान की देहरी लांघी तो पति  धनपत राय  सन्नाटे में आ गए. इस वृतांत का ज़िक्र प्रेमचंद ने आगे जाकर शिवरानी देवी से किया था.* कमाल बात यह है कि न तो शिवरानी देवी ने और न ही उनके पुत्र अमृतराय ने मुंशी अजायब लाल के ज़मींदार समधी का नाम उजागर  किया, न ही पहली पत्नी का नाम. शायद भविष्य में नए खोजी शोधकर्ता इसका पता लगा लें.      
      जो पता चला वह मात्र इतना है कि ,'उम्र में वह मुझसे ज़्यादा थी. मैंने उसकी सूरत देखी तो मेरा खून सूख गया…..उसके साथ-साथ ज़बान की मीठी थी.’ शिवरानी  देवी,'आप दावे के साथ कह सकते हैं कि आपका अपना चरित्र अच्छा था?’* बहू  की  कथित कुरूपता ससुराल का बोझ बनने लगी तो चाची (विमाता) उसे लमही से ज़मानिया लेकर चली गईंमुंशी अजायब लाल जब तबादले के बाद लखनऊ पहुंचे तब दूसरी पत्नी  और  बहू  दोनों उनके साथ नहीं गई थीं. संग्रहणी  के  पुराने रोग ने उन्हें लखनऊ प्रवास के दौरान ऐसा जकड़ा कि हताश हो वह लमही में लौट आये और कुछ समय पश्चात् ही वहीं उनकी मृत्यु हो गई.
            नवाबराय कहें या धनपतराय, 1898 में अंततः उन्होँने कॉलेजिएट स्कूल* से (द्वतीय श्रेणी में ) एंट्रेंस पास कर लिया. अब  समस्या आगे पढ़ने की थी. नया-नया  हिन्दू कॉलेज खुला था. सोचा, क्यों एडमिशन ले लिया जाये लेकिन एडमीशन इतना आसान नहीं था  जितना धनपतराय समझ रहे थे, टेस्ट में विफल हो गए. गणित में  वह पीछे  रह गए. तय हुआ कि वह प्राईवेट एग्जाम देंगे. जो कमियां हैं उन्हें ट्यूशन  से दूर  किया जायेगा. शहर में  रहकर बेहतर पढाई की जाएगी। शहर पहुँचते ही धनपतराय नेरूपये प्रति माह पर टियूशन पढ़नी शुरू कर दी. नौकरी का दबाव था लेकिन वह अपने गंतव्य तक पहुँचने में रास्ते बदलना  नहीं चाहते थे
      शहर में एक नई  ज़िन्दगी थी. पढ़ने  के अनेक अवसर और साधन थेचंद्रकांता संतति और फ़सानये-आज़ाद  उन्होंने शहर प्रवास के दौरान ही पढ़े.  आत्मकथात्मक  लेख लिखा तो रुझान साफ हो गया कि उनकी मंज़िल क्या है. लेख  सराहा  गया.  लिखा,'जाड़े  के दिन थे. पास  एक कौड़ी थी. दो दिन एक-एक पैसे का  चबेना खाकर कटे थे. मेरे  महाजन ने उधार देने से इंकार कर दिया था या संकोचवश मैं उनसे मांग नहीं सका थाचिराग़ जल  चुके थे. मैं  एक बुकसेलर की दूकान पर एक किताब बेचने गया. चक्रवर्ती गणित की कुंजी थी।  दो साल हुए खरीदी थी. अब तक उसे बड़े जतन से रखे हुए था.पर आज चारों ओरसे निराश होकर मैंने  उसे बेचने का निश्चय किया. किताब दो रुपये की थी, लेकिन एक पर सौदा ठीक हुआ.’*
      संघर्ष के इन्हीं दिनों यानि 1899 में धनपत राय की भेंट चुनार स्थित मिशन स्कूल के हेडमास्टर से हुई. धनपतराय को उन दिनों नौकरी की तलाश थी और हेडमास्टर को मैट्रिक पास अध्यापक की. संवाद हुए, ज़रूरतें समान हुईं और धनपत राय  हेडमास्टर के साथ चुनार चले गयेसंयोग से वहीं पर विमाता के भाई के दर्शन हो गए.  खाने-रहने की चिंता  जाती रही. मेवा-मिसरी  के लिए धनपत राय ट्यूशन भी करने लगेमेवा अगर एक रुपये का आता तो चार-छे रोज़  में ख़त्म हो जाता..*
      चिनार में वर्ष भी नहीं बीता था कि धनपत राय बनारस  लौट आये. वहीं  क्वींस कालेज के प्रिंसिपल मि. बेकन की सिफारिश पर  जुलाई 2, 1900 को बहराइच के जिला स्कूल में मास्टर के पद पर नियुक्त हो गए. ढाई  महीने बीते तो  उनका प्रताबगढ़ के स्कूल में तबादला हो गया. यहां वह एडिशनल टीचर के पद पर  प्रोन्नत होकर आये थे. वेतन  था 20 रूपये प्रति माह.

       उन दिनों परताबगढ़ में भी साहित्य की काफी रौनकें रहा करती थींधनपतराय के लिए यहाँ का स्वच्छंद वातावरण उन्हें बहुत पसंद आया थाशेरो-अदब  की महफ़िलों में वह  भाग लेते थे. उनके  'ज़माना' पत्रिका में प्रकाशित लेखों की बहुत सराहना होने लगी थी. जिसकी चर्चा  वहां की  अदबी महफ़िलों में भी हुआ करती थीधनपतराय के लिए यहां के अदबी ठिकाने उनके साहित्यिक-ढाबे जैसे  बन गये थे
      परताबगढ़ प्रवास के दौरान उन्होंने इम्तियाज़ अली ताज को (जनवरी 29, 1901) पत्र लिखा, 'हमखुर्मा--हमसवाब  किशना वग़ैरा मेरी इब्तेदाई (प्रारंभिकतसानीफ़ (रचनाएँ) हैं. पहली किताब तो लखनऊ के नवल प्रेस ने शया (प्रकाशित) की थीं.दूसरी किताब बनारस के मेडिकल हाल प्रेस ने.'* इसी तरह जुलाई 17, 1926 के पत्र में धनपतराय ने दयानारायण निगम को भेजे अपने पत्र में लिखा कि 1901 से लिटरेरी ज़िन्दगी शुरू की. रिसाला 'ज़माना' में लिखता रहा. कई साल तक मुतफ़र्रिक़ (विभिन्नमज़ामीन (लेखलिखता रहा
      धनपतराय के उदय का समय अब चुका था. 1904 में उनकी पहली पत्नी का देहावसान हुआ. उसी वर्ष उन्होंने इलाहबाद ट्रेनिंग कॉलेज में अपनी दो वर्षीय ट्रेनिंग की परीक्षा  प्रथम श्रेणी में पास की. हौसला इतना कि उसी वर्ष धनपतराय ने उर्दू और हिंदी की वर्नाक्युलर परीक्षा भी पास कर ली. इलाहबाद प्रवास के दौरान ही उन्होंने बनारस से प्रकाशित हो रहे साप्ताहिक आवाज़ये-ख़ल्क़ में धारावाहिक उपन्यास प्रकाशित होने लगाइस उपन्यास का नाम था असरारे मआबिद जिसकी पहली कड़ी 8 अक्टूबर, 1903 के अंक में प्रकाशित हुईइसी वर्ष यानि 30 अप्रैल को वह परताबगढ़ में अपने पुराने पद पर लौटे लेकिन 9 महीने बाद ही प्रोन्नत होकर वह पुनः इलाहबाद गए. इस बार वह यहां मॉडल स्कूल के प्रिंसिपल बन चुके थे. यहां भी वह मात्र 3  महीने ही रह पाए कि उनका तबादला इलाहबाद से जिला स्कूल कानपुर हो गया
      कानपुर में दयानारायण निगम पहले से ही रह रहे थेधनपतराय से उनका पहले से पत्र-व्यवहार होता रहता थादयानारायण निगम के लिए यह बहुत बड़ी और ख़ुशी से भरी खबर थी. वह समय बिताये बग़ैर उन्हें  स्वयं  जाकर उनके  सामान के साथ अपनी विशाल हवेली में ले आये. मेरी नज़र से धनपतराय  के साहित्यिक जीवन की असली यात्रा शायद यहीं से शुरू होती है क्योंकि यहीं पर प्यारे लाल शाकिर, दुर्गा सहाय सुरूर  और नौबत रॉय  नज़र जैसे साहित्यिक मित्रों का उन्हें साथ मिला और एक नया दृष्टिकोण भी.
            गर्मियों  की  छुट्टियों  में धनपत राय  अपने  परिवार  के  बीच  लमही  में गए. यहां रहकर भी वह  दयानारायण निगम को पत्र लिखना नहीं भूलेपत्र  पढ़ने  से  पता चलता  है  कि  वह  अपने  पारिवारिक समस्याओं से बहुत चिंतित थे. कारण थापहली पत्नी द्वारा आत्महत्या (मई, 1906 में ) कर लेने का प्रयास. पत्र में धनपत राय ने इसका ज़िक्र भी किया है 'जलभुनकर गले में फांसी  लगाई। माँ ने आधी रात को भांपा, दौड़ी। उसको रिहा किया. सुबह...अब  ज़िद पकड़ी  कि यहां रहूंगी. मायके जाऊंगी। आज उनको गए आठ रोज़ हुए।  खत, पत्तर. ..... ग़ालिबन अबकी जुदाई दाइमी  (स्थायी) साबित हो....* 
      यहां महत्वपूर्ण बात यह है कि पहली पत्नी से सम्बन्ध विच्छेद हो जाने केवर्ष बाद ही 1909 में  शिवरात्रि के दिन फागुन में जिला फतेहपु के डाकखाना कनवारमौजा सलेमपुर निवासी आर्यसमाजी मुंशी देवी प्रसाद की विधवा कन्या शिवरानी देवी से धनपतराय ने विवाह कर लियाशिवरानी देवी  स्वीकारती हैंफागुन में मेरी शादी हुई, चैत्र में आप डिप्टी-इन्स्पेक्टर हो गए.*
      1905  से 1909 तक का समय 1909 में धनपतराय  के चिंतन और उनकी सामाजिक  वैचारिक उथल-पुथल का समय थाकानपुर प्रवास के दौरान ही उनकी मानसिक सोच के दरवाज़े पर समाज राजनीती की सांकल से विवेकानंद , गोखले, रानाडे और तिलक जैसे विचारकों ने दस्तकें दीं. जातिवादी सुधारों और तत्कालीन राजनीतिक घटकों को देखते हुए भारतीय स्वदेश-प्रेम की भावना ने उन्हें झिंझोड़ा। इलाहबाद, परताबगढ़, बहराइच और चुनार के प्रवास के दौरान प्राप्त अनुभवों ने उन्हें एक नई प्रखरता प्रदान की. 1905 में धनपत राय ने गोखले पर ज़माना (नवम्बर-दिसंबरके अंक  में एक लेख लिखा. अगले ही वर्ष  ज़माना की  प्रकाशित विज्ञप्ति के अनुसार धनपतराय को  पत्रिका के संपादक-मंडल में शामिल कर लिया गया.
      इसी वर्ष  ज़माना  पत्रिका में धनपतराय  के उपन्यास हमखुर्मा हमसवाब का विज्ञापन प्रकाशित किया गया. इसके साथ ही  उर्दू  उपन्यास  हमखुर्मा हमसवाब  का  हिंदी अनुवाद प्रेमा शीर्षक इंडियन प्रेस प्रयाग ने प्रकाशित कियारूठी रानी की कथा हो या गैरीबाल्डी का जीवन चरित्र ज़माना (अप्रैल से अगस्त 1907) में धारावाहिक रूप में प्रकाशित हुआ. उपन्यास किशना का विज्ञापन भी 1907 में ही प्रकाशित हुआहो या के  हो या  इसके अगले वर्ष यानि 1907 में उन्होंने पहली कहानी दुनिया का सबसे अनमोल रतन लिखी जिसे अगले वर्ष के प्रकाशन (ज़माना प्रेस, कानपपुरमें कहानी संग्रह सोजे वतन (1908) को  प्रकाशित किया.* विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में आलोचकों ने सोजे वतन की काफी सराहना की थीसरस्वती  ने  लिखासोजे वतन पुस्तक उर्दू में है. इसमें  स्वदेश-प्रेम  सम्बन्धी पांच आख्यायिकाएं हैं. इन्हें पढ़कर स्वदेश-भक्ति का पवित्र  भाव ह्रदय में  अंकुरित हो जाता है. आज कल  ऐसे क़िस्सों की बड़ी आवश्श्यकता है.* 
      धनपत राय ने जब जिला बोर्ड हमीरपुर के अधीन सब-डेप्युटी-इंस्पेक्टर ऑफ़ स्कूल्स (जून 19, 1909)  के पद पर प्रोन्नत होकर महोबा में चार्ज लिया* तो उनकी ख़ुशी देखने योग्य थी. उस समय उनके परिवार  के सदस्यों में उनकी चाची, उनके भाई  पुत्र भी साथ थे. कब महीने  गुज़र गए, पता ही नहीं चला. होश तब  आया जब  उन्हें आठवें महीने में कलक्टर के यहां से बुलावा आया. पहुंचकर पता चला कि कलक्ट्रेट में उनके उपन्यास  सोजे-वतन की सीआईडी रिपोर्ट पहुंची है.
      रिपोर्ट पर तुरंत  कार्यवाई की गईउपन्यास  की 700 प्रतियां सरकार ने ज़ब्त कर लीं. कलक्टर ने धनपत राय पर दबाव बनाया और वादा-माफ़ी अनुबंधकर लिख दिया कि भविष्य में वह जब भी और जो भी  लिखेंगे, प्रकाशन  से पूर्व  उसे  कलक्टर को अवश्य दिखाएंगे.
      नतीजा यह निकला कि अगले सात महीनों तक धनपत राय (यानि लेखक नवाब नौबत राय गुमनामी में खो गएज़माना  पत्रिका में उनकी सैर-दरवेश,  गुनाह का अग्नि-कुंड और रानी सारन्धा जैसी कहानियां धारावाहिक रूप में प्रकाशित हुई. 1910 में यही धनपत राय (नवाब नौबत राय से) लेखक प्रेमचंद के रूप में बदल गए.
   यहां  उल्लेखनीय बात यह है कि प्रेमचंद नाम उनके मित्र दयानारायण निगम का सुझाया हुआ नाम था. इस नाम से प्रेमचंद ज़माना पत्रिका में  कहानियां लिखा करते थेबड़े घर की बेटी  ऐसी  पहली कहानी है जो प्रेमचंद के नाम से ज़माना में प्रकाशित हुई थीजलवाये ईसार (1912)  में  प्रकाशित हुई थी. इसके बाद  नवाब राय कहीं भी दिखाई नहीं दिये. उर्दू की  अदीब पत्रिका  में जो नाम आया वह था धनपत रॉय का शार्ट फॉर्म दाल. रे. अदीब के संपादक ने जब प्रेमचंद से पूछा की वह प्रेमचंद के नाम से अदीब में क्यों नहीं लिखते, तो उत्तर में प्रेमचंद ने कहा कि यह नाम ज़माना की संपत्ति है.कभी जो तारे  की तरह नाम अमरता की ओर बढ़ा वह नाम था प्रेमचंद.*
      1914 से  पहले ही  प्रेमचंद  का स्वस्थ्य काफी गिरने लगा था. संयोग से उनका बस्ती के लिए तबादला भी हो गया जहां  पहुंचकर वह और बीमार  हो गए. इतने  बीमार  हुए कि उन्हें छुट्टी लेकर लखनऊ और बनारस में अपना इलाज कराना पड़ा. पेचिश  ने  उन्हें  तोड़कर रख दिया था. इस बीमारी से हताश और निराश  होकर उन्होंने  सहायक  अध्यापक पद को स्वीकार कर बस्ती में ही रहना स्वीकार कर लिया. स्वास्थ्य में सुधार हुआ तो प्रेमचंद ने बस्ती में ही रहकर हिंदी लिखने का अभ्यास किया.* एफए (द्वितीय श्रेणी मेंपास किया। इसका प्रभाव यह हुआ कि उनका तबादला गोरखपुर (1916 ) में हो गया. यहां आकर उनका सारा  फोकस हिंदी पर  हो गया. निरंतर अभ्यास के कारण हिंदी में  उनकी रूचि निरंतर बढ़टी ही जा रही  थीयहीं  उन्हें  श्रीपतराय के रूप में पुत्र-धन की प्राप्ति हुई. हॉस्टल  के  वॉर्डन बने. फर्स्ट-एड का डिप्लोमा कर उन्होंने अपनी आर्थिक स्थिति को और भी मज़बूत बना लिया।
      1917 में प्रेमचंद के नाम से उनका पहला गल्प-संग्रह सप्त सरोज कोलकाता की हिंदी की पुस्तक एजेंसी से प्रकाशित हुआ. इसी वर्ष नवनिधि शीर्षक से हिंदी ग्रन्थ रत्नाकर मुम्बई से उनका एक दूसरा कहानी संग्रह  प्रकाशित हुआ. वर्ष के अंत में बाज़ार-हुस्न (उर्दू में) लिखने की शुरुआत हुई जिसे एक ही वर्ष में पूरा भी कर लिया गया.* हिंदी में सेवासदन उपन्यास (1918) कोलकाता की हिंदी पुस्तक एजेंसी ने प्रकाशित किया. अमृतराय  की  मानें तो यह उपन्यास 1919 के मध्य में प्रकाशित हुआ था. हो सकता है यह उपन्यास 1918 में ही प्रकाशित हुआ हो, जैसा कि चैतन्य पुस्तकालय, पटना के संग्रहालय में सुरक्षित  पहले संस्करण की प्रति से प्रमाणित होता है कि इसका प्रकाशन (प्रथम बार संवत 1975  यानि 1918 दर्ज है. प्रमाण के रूप में दयानारायण निगम को भेजे गए प्रेमचंद के पत्र को भी प्रस्तुत किया जा सकता है जिसमें 28 नवम्बर, 1918 की तिथि दर्ज की गई है.* इस पत्र में बाबू रामसरन का हवाला देते हुए उपन्यास के 400 रुपये दिए जाने की भी बात कही गई है

  
                                                                             


          
















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परिशिष्ट
* शिवरानी देवी द्वारा लिखे ग्रंथ प्रेमचंद घर में (आत्माराम एंड संस दिल्ली, 1956 )
* भारतेन्दु काव्य की हिंदी कविता में जातीयता, सुधा वर्ष 3,पृ। 670 -675
* संस्कृति की पुकार केवल ढोंग है, निरा पाखंड. इसके जन्मदाता भी वही लोग हैं
   जो साम्प्रदायिक घृणा के साये में  बैठे आराम करते हैं
* नयी कहानी की भूमिका : कमलेश्वर पृ.22 -23 ,पृ० 46
* प्रेमचंद, चिट्ठी-पत्री, भाग 1, हंस प्रकाशन, इलाहबाद 1962 
* प्रेमचंद, चिट्ठी-पत्री, भाग 1, हंस प्रकाशन, इलाहबाद 1962
* अमृतराय. प्रेमचंद क़लम का सिपाही, पृष्ठ 19
* प्रेमचंद कुछ विचार, सरस्वती प्रेस, बनारस, 1957 पृ.71
* अमृतराय, प्रेमचंद क़लम का सिपाही, पृष्ठ 385
* अमृतराय, प्रेमचंद क़लम का सिपाही, पृष्ठ 338
* सरस्वती’ पत्रिका के अंक. (जुलाई से दिसम्बर 1926 तक)
* मदन गोपाल:  मुंशी प्रेमचंद, एशिया पब्लिशिंग हाउस,1964, पृ. 165
* प्रेमचंद, चिट्ठी-पत्री भाग-2, पृ.236

* अमृतरायप्रेमचंद: क़लम का सिपाही, पृ.516
* अमृतराय, प्रेमचंद : क़लम का सिपाही, पृष्ठ : 530 -31 
* डॉकमर रईस, प्रेमचंद का तन्क़ीदी मतालेआ, अलीगढ़ 1963, पृ.348-49     
* डॉ. इंद्रनाथ मदान, प्रेमचंद प्रतिभा, सरस्वती प्रेस , इलाहबाद, 1976, पृ. 14 -17-18 
* प्रेमचंद, मान सरोवर, भागप्रेरणा कहानीपृ.10 
* डॉ. कमर रईस, प्रेमचंद का तन्क़ीदी मतालेआ, अलीगढ़ 1963, पृ..348-49 
* डॉकमर रईस, प्रेमचंद का तन्क़ीदी मतालेआ, अलीगढ़ 1963, पृ.348-49     
डॉ. इंद्रनाथ मदान, प्रेमचंद प्रतिभा, सरस्वती प्रेस , इलाहबाद, 1976, पृ. 14 -17-18 
प्रेमचंदमान सरोवर, भागप्रेरणा कहानीपृ.10 
डॉ. कमर रईस, प्रेमचंद का तन्क़ीदी मतालेआ, अलीगढ़ 1963, पृ.348-49 
प्रेमचंद,  मानसरोवर, भाग-4, प्रेरणा कहानी, पृ. 10 
प्रेमचंद, कर्मभूमि (चतुर्थ संस्करण),  पृ. 137
* गोदान,  पृ. 456 -57 
डॉ. एहतिशाम अहमद नदवी, गोदान का तन्क़ीदी मतालेआ, फैज़ुल  मुसन्निफीन 1975, पृ. 37
डॉत्रिलोकी नारायण दीक्षितप्रेमचंद  कानपुर साहित्य निकेतन, 1952 ,  पृ. 21 
डॉकमर रईस(संपादक) मुंशी  प्रेमचंद शख्सियत और कारनामे, रामपुर 1962 पृ. 253 
शिवरानी देवी ग्रंथ प्रेमचंद घर में (आत्माराम एंड संस दिल्ली,1956 ) पृ.3-4-5-7-8-9    
* अमृतराय, क़लम का सिपाही, पृ.24, 29  
* शिवरानी देवी ग्रंथ : प्रेमचंद घर में, पृ. 4 
* चिट्ठी-पत्री, भाग-1, पृष्ठ 161 
* हंस (फरवरी 1932), आत्मकथा विशेषांक, जीवन-सार  शीर्षक लेख तथा 'ज़मानाप्रेमचंद नंबरपृष्ठ:7      
शिवरानी देवी ग्रंथ प्रेमचंद घर में  (आत्माराम एंड संस दिल्ली,1956 )  पृ.3-4-5-7-8-9  तथा मदन गपाल के संपादन में             प्रकाशित प्रेमचंद के खुतूतमक्तबा जामिआ नई दिल्ली, जून 1968, पृ.175      
अमृतराय, क़लम का सिपाही, पृ.24, 29  
* शिवरानी देवी : प्रेमचंद घर में, पृ. 4 
* प्रेमचंद चिट्ठी-पत्री, भाग-1, 2 पृष्ठ : 129, 137,  161-162  
हंस (फरवरी 1932), आत्मकथा विशेषांक, जीवन-सार  शीर्षक लेख तथा 'ज़मानाप्रेमचंद नंबरपृष्ठ : 7      
* ज़माना,  प्रेमचंद नंबर, (विशेषांक) पृ. 10, 32
शिवरानी देवी ग्रंथ प्रेमचंद घर में, पृ.10 
क़लम का मज़दूर, प्रेमचंदपृष्ठ 56 
* 'सोजे वतन' कहानी-संग्रह : प्रथम बार इस कहानी का प्रकाशन 1908 में 'सोजे वतन' कहानी-संग्रह में हुआ  
* ज़माना,  प्रेमचंद नंबर, (विशेषांक) पृ.10    

   
    
 
  














इन दिनों  मैं मुंशी प्रेमचंद पर नए नज़रिये के साथ एक पुस्तक लिखने में व्यस्त हूँ. मुझे  बहुत आनंद   रहा है. मैं समझता हूँ, सफलता पूर्वक मैंने यह शोध-ग्रन्थ पूरा कर लिया तो हिंदी साहित्य के छात्रों को प्रेमचंद एक नए रूप में नज़र आएंगे. . 
दअसल जब  मैं  एमए का छात्र था, तभी से मेरे भीतर अनेक जिज्ञासाएं जन्म लेने लगी थीं. जब मैंने प्रेमचंद पहली बार पूस की रात कहानी पढ़ी तो मैं समझ गया  कि प्रेमचंद को सतही तौर पर नहीं लिया जा सकता है. मुझे पढ़ाया जाता था कि प्रेमचंद मल्टी-डायमेंशनल कथाकार  हैं. वह निजी  जीवन में कुछ और हैं, लेखन और व्यव्हार में कुछ और.  सवाल था कि ऐसा महान कथाकार  असंख्य विरोधाभासों  के साथ अपने समकालीनों के बीच कैसे जी सका?  

मैं लमही जाऊंगा
प्रेमचंद के पात्रों से मिलने
सुनते हैं----
अभी तक सब ज़िंदा हैं
उन्हें जीवित रखने के लिए
देश के किसान
आत्म-हत्या  करते हैं.
अभी भी सबकुछ पहले जैसा है
हाँ!! अंतर यह है---
पहले उन्हें गॉव-शहर का महाजन मारता था
अब! भ्रष्ट व्यवस्था मार देती  है
ज़मीनें छीन लेती है 
मैं देखूँगा लमही कैसी है 
होरी क्यों जीवित है 
उसे किसका  इंतज़ार है

डॉ. रंजन ज़ैदी