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बुधवार, 11 जनवरी 2017

नये रुतों के कुछ पन्नों पर हमने लिख दी नई ग़ज़ल/डॉ. ज़ैदी ज़ुहैर अहमद


फुटकर अशआर 

वो  बाज़ारों  में  सपने  बेचकर सबको लुभाता है, 
वो जादूगर है,  जादू  फूँक  कर जादू  दिखाता  है.  
न  खाता  है न पीता है, न सोता  है, न  जगता है,  
तुम्हें कैसे बताऊँ  मैं,  सियासत  कैसे  करता  है.
डॉ. ज़ैदी ज़ुहैर अहमद


उसके अंदाज़ निराले थे सितम ढाते थे,
ज़िन्दगी देख वही आज मसीहा है मेरा.

डॉ. ज़ैदी ज़ुहैर अहमद
  
उम्रे-रफ्ता पे  भरोसा नहीं करना दिल,
सीढ़ियां चढ़के चलो चाँद के घर हो आएं.
डॉ. ज़ैदी ज़ुहैर अहमद
   
इन्तज़ारे-शबे-हिज्राँ  भी  अजब  है यारब,
इश्क़ में इतनी सजा कौन दिया करता है.
डॉ. ज़ैदी ज़ुहैर अहमद
  
तू मेरे जिस्म की ख्वाहिश में यहां तक पहुंचा,
जब  मैं  ज़िंदा थी, तो तूने मुझे जाना ही  नहीं.
डॉ. ज़ैदी ज़ुहैर अहमद


ग़ज़ल 
डॉ. ज़ैदी ज़ुहैर अहमद

आंधी  आई  तूफां  आयेलेकिन  धरती   हिली नहीं.
घर-घर एक क़यामत आयी, लाशें फिर भी उठी नहीं

मेरे घर के   हर   कोने  में,   दहकाता   वो आग नई,
लेकिन  बामो-दर  को  देखो, लकड़ी कोई जली नहीं.

नये रुतों के कुछ पन्नों पर   हमने लिख दी नई ग़ज़ल,
लेकिन कैसी  सितम-ज़रीफ़ीपढ़ने वाला कोई  नहीं,
  
हिज्रकी आगमें जलते-जलते,वस्लकी ख्वाहिश नहींरही,
रंगे-जुनूं  का  हाल पूछो, वो  भी अब तक सोई नहीं.

एक   थी चादर धूप थी आधी, साया आधा  ख्वाब  नये,
चिड़ियाँ  चहकीं फूल भी बरसे, लेकिन बेवह उठी नहीं.

मादा पंछी  झील-सतह पर, अपने अक्स में  थी मबहूत,
मौत का  साया सामने आया, कोई दुआ  तब बची नहीं.

  दरवेशकहाँ  जाता है, अब  जंगल  में  कोई  नहीं,
सबकुछ शह्र के जंगल में है, रुक जा बस जा यहीं कहीं.
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