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रविवार, 28 सितंबर 2014

ये शह्र खंडहरों का /ज़ैदी ज़ुहैर अहमद*

ये शह्र  खंडहरों  का यहां…… रंजन ज़ैदी *


ये शह्र  खंडहरों  का यहां  सिसकियाँ  भी  हैं .

दीवारों-दर पे  मोम के   पिघले निशाँ  भी  हैं.



याँ की तो बस्तियों को  जलाकर गए थे हम,

लौटे   तो   देखते  हैं  के  चिंगारियां  भी   हैं.



तूफाने-नूह   आया  तो  किश्ती  नहीं  मिली,

है  हुस्ने-इत्तेफ़ाक़  के  अब  किश्तियाँ  भी हैं.



ये  घर  मिरी  रुबाई  की  चौखट से है  घिरा,

रिश्तों के आबशार में  कुछ तल्खियाँ भी  हैं.



माज़ी  का  वर्क़   खुलके  कई   रंग  दे  गया,

कितनी  अजीब  बात यहां तितलियाँ भी हैं.



माना के  ज़लज़लों  में  कटें रात और दिन,

क़ुदरत के हर अज़ाब की मजबूरियाँ भी हैं.
Copyright: ज़ैदी ज़ुहैर अहमद*