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गुरुवार, 28 दिसंबर 2017

जन्म-दिवस पर विशेष:ग़ालिब का असली नाम असदुल्लाह खां था/.. डॉ.रंजन ज़ैदी

मिर्ज़ा ग़ालिब का असली नाम असदुल्लाह खां था. उनके तूरानी वंशज शाही परिवार सिल्जोती तुर्क नस्ल से थे जिनमें बादशाह अफरासियाब और पुशुंग के किस्से, प्राचीन ईरान की लोककथाओं और फारसी कहानियों में बेहद प्रचलित रहे हैं. एक कते में ग़ालिब स्वीकारते भी हैं-

के-साकी चो मन पुश्नगी  व्  अफ्रासियाबीम,
वाली के अस्ले-गौहरम अज दूदए-जिम अस्त.

जब बादशाह हुमायूँ बाकायदा दिल्ली के तख़्त पर बैठा तो उसने अपने हितैषियों में तूरानी तुर्कों कों भी सम्मानित किया. इन्हीं में ग़ालिब के पूर्वज भी एक थे जो बाद में बादशाह से अनुमति लेकर आगरा में आकर बस गए. ग़ालिब इसी वंश से सम्बंधित रहे हैं. 
1796 में आगरा (उ.प्र.) निवासी अब्दुल्लाह बेग के घर जब उनके बेटे ने जन्म लिया, तब वह रियासत अलवर के महाराजा बख्तावर सिंह की सेना में नौकरी  करते थे. जिस समय असदुल्लाह 5 वर्ष के हुए, उनके पिता एक सैनिक मुहिम के दौरान दुश्मन की गोली से मारे गए. इस स्थिति में उनके लालन-पालन की जिमेदारी उनके चचा मिर्ज़ा नसरुल्लाह बेग पर आ गयी, किन्तु 4 वर्ष बाद वह भी अल्लाह कों प्यारे हो गए. तालीम के नज़रिये से मिर्ज़ा को बचपन में ही फ़ारसी मूल के विद्वान् अब्दुल्समद कों फारसी पढ़ाने के लिए नियुक्त किया गया. 

अब्दुल्समद ने ग़ालिब कों फारसी में इतना पारंगत कर दिया था कि वह फारसी में शाएरी करने लगे.
ऐसा देखकर विद्वान् आश्चर्य-चकित रह गए. (आज भी कहा जाता है कि ग़ालिब मूलतः फारसी के आला दर्जे के शायर थे लेकिन उनकी फ़ारसी शाइरी पर (उर्दू के मुक़ाबले) गंभीरता से शोध नहीं किया गया. हालांकि ईरान में ग़ालिब की फ़ारसी शाइरी पर बहुत काम किया गया है. अब तो उर्दू अदब में ग़ालिब की शाइरी और शख्सियत पर बहुत काम किया जा रहा है.

ग़ालिब खुद कों फारसी का शाएर मानते थे और फारसी के बुलंद शायरों में वह अमीर खुसरो और फैजी की ही प्रशंसा करते थे. उनकी फारसी-विद्वता से प्रभावित होकर रामपुर रियासत के छोटे नवाब यूसुफ अली खां कों फारसी पढ़ाने के लिए ग़ालिब कों नियुक्त किया गया. कालांतर में जब नवाब यूसुफ अली खा गद्दी पर बैठे तो उन्होंने सौ रूपये आजीवन पेंशन के बाँध दिए जो उन्हें बराबर मिलते रहे. 5./-प्रतिमाह उन्हें शाही किले से (1850-57 तक मिलते रहे. 

नसरुल्लाह बेग की संपत्ति से जो आय अर्जित होती थी उसमें तीन लोगों का हिस्सा लगता था, ग़ालिब के भाई मिर्ज़ा यूसुफ, उनकी मां और ग़ालिब. प्रत्येक के हिस्से में रकम (750/- रूपये सालाना) पेंशन के रूप में आती थी जो की 1857 के विद्रोह के समय तक आती रही. 1857 के विप्लव के दौरान ये पेंशन 3 वर्षों तक बंद रही, बाद में जब स्थिति अनुकूल हुई तो ये फिर शुरू हो गयी और जो 3 वर्षों का एरिअर था, वो भी वसूल हो गया. 

13 वर्ष की आयु में विवाह हो जाने के कारण उनका दिल्ली से रिश्ता जुड़ गया था और वह दिल्ली आने-जाने लगे थे. कालांतर में अंततः ग़ालिब किराये के मकानों में रहते-बसते दिल्ली स्थित मोहल्ला बल्लीमारान में उम्र के आखरी पड़ाव तक बेस रहे.  दिल्ली में ग़ालिब कों मिर्ज़ा नौशा के नाम से भी पुकारा जाता था. इसका कारण ये था कि उनकी ससुराल दिल्ली में ही थी और उनके दिल्ली निवासी ससुर नवाब इलाही बक्श, मारूफ उपनाम से उर्दू जगत में अपनी अच्छी पहचान और इज्ज़त रखते थे. यहीं रहते हुए असदुल्ला खा, मिर्ज़ा ग़ालिब बने और मिर्ज़ा ग़ालिब बनकर शोहरत की बुलंदियों कों छुआ. उनकी शोहरत और अजमत का अनुमान इस बात से भी लगाया जा सकता है कि उन्हें बादशाह बहादुरशाह ज़फर द्वारा नजमुद्दौला, दबीरुल्मुल्क, निज़ामेजंग जैसी उपाधियों से सम्मानित किया गया था. इन पुरस्कारों की उन दिनों बड़ी अहमियत हुआ करती थी.


      ग़ालिब दिल्ली की उस गंगा-जमुनी संस्कृति का प्रतीक थे जो उर्दू ज़बान की पहचान हुआ करती थी. उनके शिष्यों में मुंशी हरगोपाल तुफ्ता जैसे हिन्दू जाति से सम्बन्ध रखने वाले शाएर भी थे और मौलाना हाली, मुस्तफा खां शेफ्ता मैकश और जौहर जैसे मुसलमान भी. मैकश और जौहर के बारे में ग़ालिब ने फारसी रुबाई तक कही-
ता मैकशो-जौहर दो सुखनवर दारैम,
शान-ऐ-दीगर व् शौकते-दिगर दारैम. 

कभी उन्होंने दोनों के बीच कोई अंतर महसूस नहीं किया. वह अपने दूर-दराज़ के शागिर्दों के पत्रों का उत्तर अवश्य देते थे. इसके लिए (हालाँकि) उन्हें डाक-टिकटों को काफी तादाद में खरीदना पड़ता था, फिर भी वह इसमें संकोच नहीं करते थे. यदि कोई जवाब के लिए टिकट साथ भेज देता था तो वह नाराज़ हो जाते थे. 

उनके शागिर्दों में मीर मेहदी हुसैन मजरूह, मीर कुर्बान अली सालिक, मिर्ज़ा हातिम अली मेह्र, मिर्ज़ा जियाउद्दीन अहमद खां नय्यर, नवाब अलाउद्दीन खां इल्लाई रईस लोहारू आदि. यही ग़ालिब के शानदार स्वभाव की पहचान थी और उनके संभ्रांत होने का प्रमाण भी. वह जब भी किसी संभ्रांत व्यक्ति से मिलने जाते थे तो वह उनका तहे-दिल से स्वागत करता था. 

ग़ालिब के क़िस्सों से उनके सैकड़ों क़िस्से जुड़े हुए हैं. ऐसा ही एक मशहूर क़िस्सा दिल्ली कालेज से जुड़ा हुआ है. एक बार दिल्ली कालेज में फारसी-प्रोफ़ेसर के पद के लिए प्रशासन ने ग़ालिब को भी न्योता दिया. मिर्ज़ा ग़ालिब सज-धज कर पालकी से कालेज के फाटक तक जा पहुंचे. देर तक इंतजार करते रहे कि उन्हें रिसीव करने कोई आएगा, पर कोई नहीं आया. इससे उन्होंने खुद को काफी अपमानित-सा महसूस किया. उन्होंने देर बाद कहार से वापस लौट चलने के लिए कह दिया. इस बात की खबर जब अँगरेज़ प्रिंसिपल को लगी तो वह स्तब्ध रह गया. 

अँगरेज़ प्रिंसिपल ने ग़ालिब को सन्देश भिजवाया कि प्रशासनिक-व्यवस्था में उनका औपचारिक स्वागत संभव नहीं था. क्योंकि ग़ालिब कालेज में ब-हैसियत कैंडिडेट गए हुए थे न कि शाएर मिर्ज़ा ग़ालिब. यही उनकी खुद्दारी थी. जिसने उन्हें उम्र के आखरी दिनों में बहुत परेशान किया. कान से भी ठीक से सुनाई नहीं देता था और स्वभाव में मलंगीपन तक आ गया था.

मैं  अदम से  भी परे हूँ,  वरना गाफिल!  बारहा/ 
मेरी आहे-आत्शीं से बाले-उनका(unqa) जल गया. 

इस शेर में ग़ालिब ने उन लोगों को संबोधित किया है जो ब्रह्म-ज्ञान अर्थात खुद-शनासी को नहीं समझते, कहते हैं कि मैं मुल्के-अदम से दूर जिंदगी और मौत की हदों से दूर निकल चुका हूँ. जब मैं इन सीढियों को पार कर रहा था तो अक्सर ऐसा हुआ कि बुलंद गर्दन मेरी पस्ती से भी अधिक महसूस होती रही और मेरी सोजे-मुहब्बत ने उसकी शोहरत के पंख जला दिए थे. उनकी मायूसियों ने उन्हें इसक़दर बेजार कर दिया था कि उन्हें इसका इज़हार तक करना पड़ा.

मैं हूँ और अफसुर्दगी की आरज़ू ग़ालिब! के दिल/
देख  कर  तर्ज़े-तपाके  अहले  दुनिया जल गया.

यानी, दुनियावालों द्वारा की जाने वाली उनकी उपेक्षा और उनके प्रति की जाने वाली व्यवहारिक उदासीनता से वह इतने क्षुब्ध हैं की अपनी स्वभावगत खुशियों से ही वह विरक्त हो गए हैं. अब तो हाल ये है की उदासी ही अज़ीज़ हो गई है और वह चाहते है कि ऐसे ही उदास रहें.क्योंकि जब-जब वह खुश रहने की जुर्रत करते हैं तो दुश्मन उनकी जान लेने पर उतारू हो जाते हैं. 'सुभ: करना शाम का, लाना है जूए-शीर का।' 
कावे-कावे से तात्पर्य प्रयास और प्रयत्न है। जूए-शीर का लाना अर्थात कठिन कार्य। गालिब फरमाते हैं  कि तन्हाई और बेकसी के आलम में सख्त जान बनकर जो मुसीबत झेल रहा हूँ, समझ लो कि इस शाम-ऐ-गम का अंत उतना ही मुश्किल है जैसा कि फरहाद के लिए पहाड़ को चीर कर दूध की नहर निकालना एक कठिन कार्य था। शेर का साधारण अर्थ तो यही था। किंतु दूसरी पंक्ति में एक अर्थ और भी छुपा हुआ है। कोहकन की मौत थी, अंजाम जूए-शीर का। अर्थात जूए-शीर लाने में सफल होना कोहकन के लिए मृत्यु का संदेश साबित हुआ। इस प्रकार मैं भी इस शाम-गम को मर कर ही ख़त्म कर सकूंगा। @ranjanzaidi786