मंगलवार, 22 जुलाई 2014

मानस की खोज में मनुष्य को तलाशता कथाकार ‘मंटो’/ रंजन ज़ैदी

सादत हसन मंटो का जन्म ११ मई,१९१२  में लुधियाना, पंजाब के गांव संबराला में हुआ था जबकि उनकी
मृत्यु १८ जनवरी,१९५५ को लाहौर में हुई. 
          मंटो ने उर्दू साहित्य की अनेक विधाओं पर कार्य किया है जिसमें रेखा-चित्र, अनुवाद, नाटक और फिल्मों के लिए कहानियां, उल्लेखनीय हैं. यही नहीं बल्कि उन्होंने फिल्मों में भी अभिनय किया, लेकिन वे अभिनेता के रूप में सफल नहीं हुए.
          उर्दू साहित्य में शोध करने वाली अधिकतर छात्राएं मंटो के साहित्य पर शोध करने से सदैव कतराती रहती थीं.  बताते हैं कि पाकिस्तान में आज भी महिला छात्राएं उर्दू साहित्य में मंटो पर शोध नहीं करना चाहती हैं, लेकिन कमाल की बात यह है कि एक कथाकार के रूप में वह आज भी शोधार्थियों की अव्वल पसंद में शुमार किये जाते हैं. 
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कथाकार-मंटो                                                                   सादत हसन मंटो को हिंदी-उर्दू साहित्य में एक ऐसे कथाकार के रूप में लिया जाता है जिसने समाज के आम किरदारों की आवाज़ बनकर अपने अफसानों में ज़िन्दगी भर ज़िंदा रखा और वही अफ़साने उसके दिवंगत हो जाने के बाद अपने रचनाकार को आज भी ज़िंदा रखे हुए हैं.
      कहा जाता रहा है कि मंटो अश्लील कथाकार है. संयोग से यह आरोप भी पहली बार तत्कालीन प्रगतिशील साहित्यकारों ने ही लगाया था. जब कि मंटो अपने समय के समाज की आवाज़ बनकर हुक्मरानों को ऐसे मर्सिये सुना रहा था जिसमें तत्कालीन सामाजिक राजनीतिक व्यवस्था से जन्म लेता दुःख, राजनितिक शोषण, असमानता, सांप्रदायिक-हिंसा, बलात्कार और भ्रष्टाचार की धुनें थीं और अश्लील कहे जाने वाले अफसानों की पोनोग्राफी भी.
          शायद इसीलिए उर्दू साहित्य के बड़े आलोचकों में शुमार किये जाने वाले आलोचक अज़ीज़ अहमद ने मंटो की कहानी धुंआ को खट्टी डकार की उपमा दी.  उनकी दृष्टि में उनके द्वारा लिखे गए अफसानों से तत्कालीन युवा-पीढ़ी सेक्स को एक तरह के शारीरिक-रोग के रूप में लेते हुए उससे विरक्त होने लगी थी जब कि कहानीकार के रूप में अज़ीज़ अहमद ने खुद अपने अफसाने अंगारे और शोले में सेक्स का भरपूर इस्तेमाल किया है. यही नहीं, मंटो के समकालीन अली सरदार जाफ़री ने तो उनके साथ कदमताल करते हुए भी अपनी पुस्तक प्रगतिशील साहित्य में मंटों को अश्लील साहित्य लिखने पर फटकार तक लगाई है.
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          प्रगतिशील आलोचक की यह फटकार मेरी दृष्टि में सही नहीं है क्योंकि मंटो तत्कालीन समाज में व्याप्त शोषण के विरुद्ध अपनी आवाज़ बुलंद कर रहे थे जिसमें तनिक भी किसी भी तरह की राजनीति शामिल नहीं थी. उनकी कहानियों में सीधे उस आम इंसान के दर्द को उकेरा गया है जिसे शारीरिक हिंसा करने के लिए बाध्य किया जाता है. दूसरी ओर धार्मिक-आवरण की परतों की ओट में रहकर अनिच्छायी स्त्री-पुरुष को एक साथ मर्यादाओं के साथ बलात दाम्पति-जीवन जीते रहने के लिए बाध्य करते रहना भी किसी तरह से धर्मांध-सामाजिक शोषण की परिधि से अलग नहीं माना जा सकता है.
          मंटो का नज़रिया साफ़ था.  उसकी कहानियों के किरदार बदरू और मोरनियां के रूप में हर शहर में आसानी से देखे जा सकते हैं जो शहर की गंदिगी को बाहर ले जाते हैं. मंटो के अनुसारहम अपने संगेमरमर के गुसलखानों की बात कर सकते हैं, अगर हम साबुन और लैवेंडर की बात कर सकते है तो इन मोरियों और बदरुओं की बात क्यों नहीं कर सकते जो हमारे बदन का मैल पीती हैं?’ इस वक्तव्य से ही मंटो की सोच और उसकी कद्दावर हैसियत का पता चल जाता है.
          इसी समाज से उठाये हुए मोज़ेल, शारदा और कुलसूम जैसे किरदार मंटो जैसे कथाकार के कद को और भी ऊंचा उठा देते हैं. ठंडा गोश्त की वहशत, उसका मनोविज्ञानिक प्रस्फुटन और तत्कालीन सांप्रदायिक हिंसा के थरथराते ह्यूले जिस तरह के बिम्बों के साथ कहानी के अंधेरों से बगूलों की तरह निकलते और फटते हैं, उनका चित्रण मंटो जैसा कथाकार ही कर सकता था और उसने उस भयानक त्रासदी की उलटी करके दिखाया भी. ऐसी उलटी कि जिसकी दुर्गन्ध से इंसानियत को भी घिन आने लगे. मंटो द्वारा उन्हीं दिनों होते रहने वाले सांप्रदायिक दंगों पर लिखे गए इस जैसे और भी अफसानों में इसी तरह की विवशता की प्रस्तुति मानव-मूल्यों को शर्मसार करने के लिए काफी है- 
नका पहला कहानी संग्रह आतिश पारे १९३६ में लाहौर से प्रकाशित हुआ था. सस्ते और अश्लील साहित्य कहे जाने वाले अफसानों में सरदार टोबाटेक सिंह, ठंडा गोश्त, नंगी आवाज़ें, आखिरी सियालकोट, खाली बोतले-खाली डिब्बे, काली शलवार, खोल दो,  नया कानून, लाइसेंस, ब्लाउज़ और अनारकली जैसे अफसाने आज भी बुद्धिजीवियों के बीच बहस के विषयों को जन्म  देते रहते हैं. अपने समय में इन्हीं अफसानों को चोरी-छुपे पढ़-पढ़कर इलीट-वर्ग चटखारे लिया करता था लेकिन कालांतर में यही पाठक-वर्ग स्वीकारने लगा कि मंटो यथार्थवादी कथाकार है कि सतही अश्लील साहित्य का सर्जक. इसके बावजूद मंटो के विरुद्ध कानूनी प्रशासनिक कार्यवाइयां हुईं. उन्हें मुकदमों के फैसलों में दण्डित किया गया.
          डीएच. लारेंस के उपन्यास लेडी चैटर्लीज़ लवर  के प्रकाशन और उसके वितरण पर इंग्लैण्ड और अमेरिका में काफी समय तक रोक लगी रही जब कि ऐसा नहीं होना चाहिए था. यूँ देखा जाये तो लेखक के जीवन-काल में ही उपन्यास लेडी चैटर्लीज़ लवर के कई अंश पहले ही प्रकाशित हो चुके थे. तब कोई भूचाल नहीं आया था लेकिन उसकी मृत्योपरांत लगभग ३० वर्षों बाद जब पूरा उपन्यास प्रकाशित हुआ तो अमेरिका और ब्रिटेन में हड़कम्प मच गया. तब कोई भी व्यक्ति यह अनुमान नहीं लगा सकता था कि कालांतर में यही उपन्यास अपनी स्थिति में एक कालजयी उपन्यास साबित हो जायेगा।
          यही स्थिति यूलिसिस उपन्यास की रही. उसे भी अश्लीलता के खेमे में घेरकर अदालत के कटघरे में पहुँचाया गया, मुक़दमे चले लेकिन फिर समय आने पर उस उपन्यास को भी पाठकों ने अपने सीने से लगा लिया। वास्तविकता यह है कि अश्लीलता की परिभाषा समय और काल में बदलती देखी गई है. ढाई हज़ार साल पहले  काम-सूत्र के रचयिता वात्स्यायन पर भी अश्लील साहित्यकार होने की मुहर लगाई गई थी लेकिन वही ग्रन्थ कालांतर में कालजयी सिद्ध हुआ.
          फोर्ट विलियम कालेज द्वारा प्रकाशित कहानी तोता को भी अश्लील कहानियों में शुमार किया जाता है लेकिन इसके बावजूद हम उसे अश्लील कहानी साबित नहीं कर पा रहे हैं क्योंकि अभी तक हम यही साबित नहीं कर पाये हैं कि अन्त्ततः अश्लीलता है क्या और कैसे इसे परिभाषित किया जा सकता है.
          देखा जाये तो जो कानून ईस्ट इंडिया कंपनी ने १८५६ में ऑब्सीन बुक्स ऐंड पिक्चर्स ऐक्ट के नाम से बनाया था, वही कानून आज़ादी के बाद भारतीय संविधान ने इंडियन पीनल कोड में शामिल कर लिया जिसके तहत काली शलवार, बू और धुंआ जैसी अश्लील कहानियों के लेखक सादत हसन मंटो पर तत्कालीन इंडियन पीनल कोड के तहत मुक़दमे चलाये गये.
          मंटो की कहानियों के पात्रों में सेक्स-वर्कर  हमारी आर्थिक सामाजिक-व्यवस्था के मूल केंद्र में  प्रतीक के रूप में नज़र आती है. मतलब यह कि आज़ादी के बाद भी समूचा देश आर्थिक भ्रष्ट प्रशासनिक व्यवस्था के पतनोन्मुखी रवैये के कारण आज भी बेहद पिछड़ा हुआ है जो तमाम योग्यताओं, अनुभवों और प्रतिभाओं के बावजूद अपनी मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा करने में सक्षम नहीं है. कमोबेश यही स्थिति सेक्स-वर्कर की है जो जीवन की मूलभूत आवश्यक्ताओं तक को पूरा करने के लिए तरसती रहती हैं.
          मंटो ने अपने किसी भी अफ़साने में उनके पात्रों को किसी विशेष पार्टी या राजनीतिक एजेंडे का वालिंटियर बनने की अनुमति नहीं दी. यहाँ तक कि जब वह सपरिवार भारत से पाकिस्तान गए तो वहाँ भी उनके दृष्टिकोण में किसी भी तरह का परिवर्तन नहीं आया. शायद इसीलिए पाकिस्तान में मुहम्मद हसन असकरी और वारिस अलवी जैसे उर्दू साहित्य के नामवर आलोचकों ने भी मंटो के साहित्य को गम्भीरता से नहीं लिया।
          अजीब बात यह है कि मंटो खुद से पाकिस्तान नहीं जाना चाहते थे लेकिन उनका परिवार एक खुशहाल सपने को साकार करने का उत्स लिए वहाँ पहुंचकर एक नई ज़िन्दगी की शुरूआत करना चाहता था. स्वप्न का दुखद पहलू यह था कि मंटो का परिवार यह स्वप्न उस समय देख रहा था जब बटवारे के धुएं में सरदार टोबाटेकसिंह भारत-पाक की अजानी सरहद पर अपने खेत तलाशने में विभाजन की अदृश्य लकीरों पर दौड़ रहा था, कभी इधर तो कभी उधर. उसे तब दोनों तरफ बेचे जा रहे ठन्डे गोश्त की भयानक दुर्गन्ध महसूस हो रही थी. वहीं काली शालवारों की खुलती गांठे गिनी जा रही थीं. दरयाए-चिनाब और झेलम की तेज़ धाराओं को पारकर वफादार जानवर अपनी  अंतिम उखड़ती सांसों की कड़ियाँ पकड़े अपने मालिकों को उदास नज़रों से देखते हुए दम तोड़ रहे थे और बवंडर की महामारी की खबरें मंटो को पल-प्रतिपल घोर निराशा की फिसलन पर सरकाती जा रही थी.
          कैसा अजीब संयोग था कि जब बवंडर के गुज़र जाने की खबर आई तो मंटो इस दुनिया से ही रुखसत हो गया लेकिन कौन बताये कि वह मृत्यु तो पदार्थ की थी, कहानीकार मंटो तो आज भी हमारे बीच किताबों के पन्नों पर करवटें लेती कालजयी रचनाओं की दुनियां में ज़िंदा है.
          ५६ वर्ष बाद पाकिस्तान को याद आया कि उनके मुल्क में कोई उर्दू का बहुत बड़ा कथाकार सादत हसन मंटो है जिसे भारत के अदीबों और वहाँ के अदब में भी इज़ज़त की निगाह से देखा जाता है और जिसने प्रकाशित-अप्रकाशित लगभग ३२५ कहानियां लिखी हैं. क्यों उसे निशाने-इम्तियाज़ सम्मान से सम्मानित किया जाये? यह सम्मान उन्हें इसलिए दिया गया कि भारत की  विभिन्न साहित्यिक-संस्थाएं मंटो को सम्मानित कर रही थीं. पाकिस्तान शर्मिंदा था कि उससे ऐसी भूल कैसे हो गई? पाकिस्तानी मंटो अगर इतना बड़ा रहा है तो उसे भी पाकिस्तान में सम्मानित किया जाना चाहिए था. पाकिस्तान के ब्रांडेड-फ़तवा कम्पनियाँ उन्हें कम्युनिस्ट मानती रहीं और मृत्यु के बाद भी वही कम्पनियां उन्हें कम्युनिस्ट मानती रही हैं लेकिन वे आजतक यह बात नहीं समझ पाईं कि मंटो एक सच्चा, ईमानदार मानस कथाकार था.
          मंटो ने लिखा भी कि मृत्यु के बाद उनकी कब्र के कत्बे पर भले ही उनके कम्युनिस्ट होने का मैडल चस्पा कर दिया जाये लेकिन यह बात जान लेना ज़रूरी है कि इस कब्र में कौन दफन है, वो कि जो पाकिस्तान का एक आम शहरी मुसलमान था. या वो जो मज़हब के जुनूनियों से दूरियां बनाकर खुद को हरेक वाद से मुक्त रखना चाहता था. सच्चाई को गहराइयों तक देखने-परखने और बुरों को  लगाने तक का हौसला रखता था, या वो मंटो जो दो-कौमी नज़रियों की राजनीति का समर्थक था. कथाकार मंटो का तो वाक्य यही हो सकता था कि इस कब्र में वह दफन है, जो कथाकार सादत हसन मंटो के नाम से जाना जाता है, जिसने  जीवन भर अपने अफसानों के माध्यम से मानस की खोज में मनुष्य को तलाश किया.
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