गुरुवार, 24 जुलाई 2014

'शेख सादी की गुलिस्तां-बोस्तां'. /रंजन ज़ैदी

गुलिस्तां-बोस्तां-शेख सादी/रंजन ज़ैदी 

    
गुलिस्तां-सादी 
 
'गुलिस्तां-बोस्तां लेखक 'शेख सादी', बरसों पहले मैंने  शेख सादी प़र  कादम्बिनी  में एक लेख लिखा था. उन दिनों भी मैं चाहता था क़ि किसी भी सूरत से मुझे इतना समय मिल जाय क़ि मैं इन दोनों जिल्दों का अनुवाद करूं. बचपन से मैं जिन महत्वपूर्ण किताबों से प्रभावित रहा हूँ, उनमें  यह  पुस्तक भी एक है. उर्दू साहित्य के ब्लॉग को बनाने के पीछे भी मेरा यही उद्देश्य रहा है क़ि मैं हिंदी पाठकों को दूसरी भाषाओँ के साहित्य से परिचय कराऊँ. हिंदी के पाठक बहुत कुछ पढना चाहते हैं किन्तु दुखद स्थिति यह है क़ि हिंदी साम्प्रदायिक राजनीति का शिकार हो गयी है. हिंदी में मुस्लिम साहित्यकारों की इतनी उपेक्षा कर दी गयी है कि वह चाहकर भी हिंदी साहित्य को समृद्ध नहीं कर पाता है.
      हिंदी साहित्य कहानियों और उपन्यासों से समृद्ध नहीं होगा. जब तक हम दूसरी कथित बोलियों और भाषाओँ के साहित्य को हिंदी पाठको तक नहीं पहुंचाएंगे, हिंदी कभी भी लोकप्रिय नहीं हो पायेगी. आज भी हिंदी को लोकप्रियता दिलाने में मीडिया, सिनेमा, विज्ञापन और मिशनरीज़ की भूमिका का नकारना मुमकिन नहीं है. उर्दू शायरी आज भी लोगों की जुबान प़र थिरकती है. ग़ज़ल  इसका उदहारण है.
      राजभाषा को स्थापित करने के लिये दशकों से सरकारें करोडो-अरबों रूपये खर्च करती है, किन्तु सरकार के भीतर ही यह दूसरी भाषा से ऊपर के सोपान तय नहीं कर पाई. मुगलों ने फारसी को सरकारी भाषा का दर्जा दिया तो वह अंग्रेजों तक चाहते हुए भी दस्तावेजों से चिपटी रही. आज भी कचेहरी की जुबान में फारसी के शब्द जिंदा है. हिंदी के लेखकों और इसके प्रमोटरों को यह ध्यान रखना होगा कि ज़ुबाने लादी नहीं जातीं, ज़ुबाने अपने दहाने खुद तलाश लेती हैं. उर्दू कहीं बाहर से नहीं आई थी, यहीं के बाज़ारों में जन्मी थी. यहाँ के बाज़ारों में अरबी, तुर्की, आर्मेनियाई, रूसी, मंगोलियाई, लैटिन, फ़्रांसिसी और जर्मनी ज़ुबानों के शब्द बाज़ारों में आकर गंगा-जमुनी संस्कृति का हिस्सा बन गए थे...... 
      गुलिस्तां-बोस्तां-शेख सादी, मूलत: यह पुस्तक फारसी में है. यहाँ मैं मात्र अनुवाद कर रहा हूँ. यह पुस्तक के रूप में प्रकाशित भी हो रही है. 'शेख सादी की गुलिस्तां-बोस्तां'. पुस्तक में  पाठक उसका मूल फारसी पाठ भी देख सकेंगे.  
      शुरू करता हूँ मैं अल्लाह का नाम लेकर जो बड़ा गफूरुरहीम है. -मिन्नतें मर खुदाए रा...उस ईश्वर का  विशेष उपकार जो बुज़ुर्ग और सर्वश्रेष्ठ है. जिसकी इबादत उसके नज़दीक पहुँचने का कारण है. और उसका धन्यवाद करने में नेमतों की बढ़ोतरी है. जो सांस अन्दर जाता है, जिंदगी को बढ़ाने वाला है.* वही साँस जब बहर आता है तो वैयक्तिक आनंद की अनुभूति को जन्म देता है. बस, हर सांस में दो नेमतें मौजूद हैं और हर नेमत प़र ईश्वर का धन्यवाद करना आवश्यक है. 'अज दस्त--ज़बां -ने- कि बर आयद, कज़ ओह्दये शुक्राश बदर आयद'. (किस के हाथ और ज़बां से हो सकता है कि उसके शुक्र की ज़िम्मेदारी पूरी कर सके).. (कुरआन); दाऊद की संतानों, शुक्र करो, और मेरे बन्दों में शुक्रगुज़ार कम है. वही बन्दा बेहतर है जो अपनी भूलों को स्वीकार करले अन्यथा खुदा के यहाँ माफ़ी नहीं है. उसकी बेहिसाब रहमत की बारिश सबको पहुंची हुई है और उसकी बेरोक-टोक नेमत का दस्तरख्वान* सब जगह बिछा हुआ है. बन्दों की शर्म का पर्दा सख्त जुर्मों के कारण भी गिराए रखता है और बदतरीन गुनाह प़र भी रोज़ी के दरवाजे बंद नहीं करता है.  
      कता : एय वह दाता  जो अपरोक्ष खजाने से अतिशपरस्तों (अग्नि-पूजकों ) और ईसाइयों को भोजन पहुंचाता  हैमित्रों को तू कब वंचित कर देजबकि तू  दुश्मनों की भी देखभाल रखता है.  
       'उसने पूरब की हवाओं के सौदागर को हुक्म दिया ताकि पन्ना नामक रत्न  का फर्श बिछाए..... (प्रकृति वर्णन). गुले खुशबुए दर ... एक दिन बाथरूम में मेरी प्रेमिका के द्वारा भेजी गयी  एक सुगन्धित मिटटी मेरे हाथ में आई. मैंने उससे पूछा कि तू इत्र  है या अबीर? क्योंकि तेरी सुगंध से मैं मदहोश हो गया हूँ. उसने जवाब दिया कि मैं तो एक नाचीज़ मिटटी  थी, लेकिन एक ज़माने तक मैं फूल के साथ रही . साथी के सौन्दर्य ने मुझ प़र असर किया , वर्ना मैं तो वही मिटटी की मिटटी ही रहती.' 
                ( इस कथा में 'सादी' के कहने का अर्थ यह था कि  सोहबत का असर होता है. अच्छी-बुरी सोहबत के अच्छे-बुरे नतीजे निकलते हैं. अबीर  ईरान में एक ऐसी  मिश्रित सुगन्धित वस्तु को कहते हैं जिसे चन्दन, गुलाब, मुश्क और ज़ाफ़रान को मिलाकर तैयार किया जाता है.)  
      सादी कहते है कि बात का जानने वाला, अनुभवी और वृद्ध मनुष्य पहले सोचते हैं, फिर बात करते हैं. बिना सोचे बात मत कर, भले ही तू देर में कहे. बात करने से पहले सोच ले कि तुझे क्या बात करनी है, तू बात को इतना लम्बा खींच कि लोग कह उठें-'बस! अब बहुत हुआ.'
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*(मनुष्य रात-दिन में २४ हज़ार सांसें लेता है और अन्दर जाने वाली सांस को जितने यत्न से जितनी देर रोक सके, उतनी ही व्यक्ति की उम्र लम्बी होती है. क्योंकि अन्दर जानेवाली ठंडी हवा  रूह और दिल के लिये शक्तिवर्धक होती है, इसलिये ऐसी सांस को जीवनदायिनी बताया गया है. जो सांस बहर जाती है, वह गर्म और शरीर से निकलने वाली दूषित वायु है, जिसका शरीर में रुके रहना हानिकारक है. यहाँ लेखक ने कुरआन की आयत का ज़िक्र इसलिये किया है कि उसने अपनी रचना शुरू करने से पहले ईश्वर के धन्यवाद का ज़िक्र किया है. 'तू नहीं जानता कि संवाद ही मनुष्य को पशुओं से बुलंद बनाते हैं. यदि तू ठीक से बात नहीं कर पाता है तो तुझमें और जानवर में कोई अंतर नहीं है.'
* वह चादर जिसे बिछाकर मुस्लिम परिवार के सदस्य एकत्र होकर परस्पर भोजन करते हैं.

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