गुरुवार, 17 जुलाई 2014

हकीम मोमिन खां मोमिन./डॉ.रंजन ज़ैदी



हते है कि शायर जन्मजात शायर होता है. किन्तु उसकी शायरी उसके परिवेश और वातावरण से प्रभावित होती है. शायद कहीं तक सही भी हो.
अरब के रेगिस्तान की ओर नज़र डालें तो हम देखेंगे कि अरब का शायर इब्नुल-मोत्नर अगर राजशाही से होता तो शायद यह शेर कभी कह पाता-
फानाज-रुल्या कर्वर्क मिन फज़तः, क़दास्क़ल्तः हम्वाल्तः मिन अम्बर.(इब्ने-रूमी)
(यानी, चाँद को देखकर अम्बर के बोझ से दबी हुई चांदी की कश्ती की ओर ध्यान आकर्षित होना तभी संभव हो सकता है जब किसी ने इसे देखा हो.)
अरब के उस युग में जब वहां जेहालत का बोलबाला था और वहां के लोग प्राकृतिक दृश्यों के अतिरिक्त तो कुछ देख-समझ सकते थे, और ही कुछ इससे इतर सोच सकते थे, इब्नुल मोत्नर की ऐसी परिकल्पना उसके जन्मजात शायर होने की गवाही देती है. यहाँ एक बात यह भी महत्वपूर्ण है कि कुछ शायर ऐसे होते हैं जो अपनी मानसिक सोच और परिकल्पना से ऐसे वातावरण में पहुँच जाते हैं जो उसके इर्द-गिर्द के परिवेश में नहीं होता है. इसी लिये कहा जाता है कि शायरी वास्तविकता नहीं बल्कि वास्तविकता की अभिव्यक्ति होती है. वह कोई वैयक्तिक अनुभूति नहीं बल्कि अनुभूति का बयान है.यही कारण है कि शायरी की अभिव्यक्ति प़र की जाने वाली विभिन्न प्रकार की आलोचना मनुष्य की प्रकृति का एक हिस्सा है. कहीं रूमी जन्म लेता है तो कहीं, कालीदास, कहीं होमर जन्म  लेता है तो कहीं तुलसीदासकहीं शेक्सपिअर तो कहीं ग़ालिब. सूर्य का पिंड वही है. उसके उदय और अस्त होने की प्रक्रिया आदिकाल से एक जैसी है. किन्तु  यही सूर्य भिन्न स्थितियों को जन्म देता है. एक व्यक्ति के लिये यह प्रकाश-पुंज और जीवन का प्रतीक बन जाता है तो दूसरे के लिये वह भय जीवन को नष्ट कर देने की शक्ति का स्रोत. इनमें कोई शायर भी नहीं है.यह दो साधारण व्यक्तियों की मान्यताएं है. एक प्रसन्न होकर गुनगुना उठता है, दूसरा उसके आगे नतमस्तक होकर उसे भागवान बना देता है. शायर भी ऐसे ही विरोधभासों से मुक्त नहीं है. हालाँकि सभी के आकर्षण का केंद्र-बिंदु एक सूर्य ही होता है, किन्तु चिंतन, धारणाएं और आस्थाएं परस्पर भिन्नता लिये हुए होती हैं. रात के सन्नाटे में पपीहा किसी एक दिल को उम्मीद का सन्देशवाहक लगता है तो दूसरे को विरह का दूत. यही है वह भिन्नता जो व्यक्तियों को एकदूसरे से जुदा करती है. यही भिन्नता ग़ालिब और मोमिन में थी, जौक और इंशा में थी.                           
ज़माना था आखरी मुग़ल बहादुरशाह ज़फर का. यह वह ज़माना था जब आखरी मुग़ल की ताजदारी की शम्मा भड़क रही थी.  हालाँकि अभी तक दिल्ली के दरवाजे प़र १८५७ के ग़दर की धमक नहीं पहुंची थी. इसीलिए बादशाह के दरबार की महफ़िलों की रौनकें अपने आब--ताब के साथ बदस्तूर जलवाअफरोज थीं. शेरो-शायरी की महफ़िलों में ग़ालिब, जौक, मोमिन, ममनून, आज़ुर्दः ,रख्शां, शेफ्तः, सहबाई, और अलवी जैसे शोअरा अपने कलाम की शम्में जलाये हुए थे, तभी एक ऐसा शायर दुनिया से कूच कर गया जिसने खुद्दारी को अपना तकिया बनाया था और जिसने दरबार--शाही की कभी तारीफ नहीं की थी और ही अंग्रेजों की रही आंधी से  खौफज़दः था. यह शायर था  हकीम मोमिन खां मोमिन. ...(जारी/-2)
(यह ऐवाने-अदबहै. यहां अदब की महफ़िलें साजेंगीं, आप भी शामिल होकर अदब को फ़रोग़ दें. दुनिया के किसी भी Copyright डॉ.रंजन ज़ैदी*) 

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