ग़ज़ल/तेरी कशिश में/ डॉ.रंजन ज़ैदी
लफ़्ज़ों का बाज़ार सजा है, बेच ले हर मौसम का ख्वाब.
हुनरवरों का ये मेला है, संभल के लेना- देना ख्वाब.
नन्हीं - नन्हीं डिबियां रखले, रखले उनमें रस्मो - रिवाज,
उम्र की गलियां कब सो जाएँ, आजाये कब मौत का ख्वाब.
ख्वाबों की ताबीर पे हम तनक़ीद को मोहलत दे तो दें,
लेकिन ऐ दिल इन आँखों से देखें कैसे, क्या - क्या ख्वाब.
शजर-शजर से पूछ न लेना हिज्र के पत्तों का मौसम,
डरा-डरा है शाख का पत्ता, डरा है हर पेवस्ता ख्वाब.
आंसू, यादें खंडहर-खंडहर, ज़ख़्मी साये, जलती धूप,
हिज्र में सोना,वस्ल में जगना, अब न दिखा यख़बस्ता ख्वाब.
Copyright :डॉ. रंजन ज़ैदी*