बुधवार, 6 जुलाई 2016

मेरी नई पुस्तक. से -/2 रंजन ज़ैदी

इंतज़ार हुसैन ने अपनी उर्दू रचना 'चन्द्र ग्रहण' यानि چاند گہن के एक पात्र सिब्तैन سبطیں जो विभाजन से पूर्व
इंतज़ार हुसैन
हिंदुस्तान के किसी कालेज में प्रोफ़ेसर होता है, लेकिन इसके साथ ही साथ उसे पत्रारिता में भी रूचि होती है लेकिन जब वह हिदुस्तान से हिजरत कर पाकिस्तान के शहर लाहौर पहुँचता है और वहां रहकर महसूस करता है कि वहां के समाज के बीच रहकर बड़े पैमाने पर स्वैच्छिक क्षेत्र के विकास का काम किया जा सकता है, इसमें उसकी पत्रकारिता काफी लाभदायक सिद्ध हो सकती है. ऐसा निर्णय लेने बाद वह ऐसे किसी प्रिंटिंग प्रेस की तलाश में जुट जाता है जो लावारिस हो. इसके लिए वह पुनर्वास विभाग से संपर्क कर एक लावारिस प्रिंटिंग प्रेस को अपने नाम एलाट कराने की जद्दोजहद शुरू कर देता है लेकिन बाद में पता चलता है कि उसे किसी महाजिर धोबी के नाम एलाट कर दिया गया है. सिब्तैन की किस्मत में लांड्री लिख दी जाती जिसे लेकर अंततः उसे संतोष कर लेना पड़ जाता लेकिन उसके लिए भी वह सही समय पर दफ्तर नहीं पहुँच पाता है और लांड्री भी हाथ से निकल जाती है. यहीं से उसके अर्थहीन संघर्ष की कहानी रफ़्तार पकड़ती है. बेढंगे एलाटमेंट और प्रशासनिक अव्यवस्था का ज़िक्र इतिहासकार कहीं भी करता नज़र नहीं आता है, और न ही वह सिब्तैन के माध्यम से तत्कालीन मानवीय त्रासदियों का ज़िक्र कर पाता है जिनका सामना वहां के महाजरीन कर रहे थे. इंतज़ार हुसैन ने इतिहासकारों के सामने एक दूसरा ही दृष्टिकोण प्रस्तुतकर इस बहस को एक नई तुर्फगी अर्थात एक नए और अनोखेपन का स्वर दे दिया जिसने 19वीं शताब्दी यानि प्रथम विश्वमहायुद्ध के समय तक रचे गए साहित्य को यथार्थवादी-साहित्य कहा और आंद्रे ब्रिटॉन (Manifestos of surrealism p-14) ने अपने समय के उपन्यास जैसी कमतर श्रेणी वाली विधा को 'अभिव्यक्ति की तकनीकी माध्यम का एक दर्जा' बताया. इनके समकालीन रचनाकारों में काफ्का या जेम्स ज्वाइस अपने भिन्न मतभेदों के बावजूद तत्कालीन औपन्यासिक साहित्य के अस्तित्व को नकारने के लिए तैयार नहीं थे लेकिन वे यह मानते थे कि स्वप्न में दिखी कहानियों को लिखा जा सकता है, लेकिन उसे इतिहास नहीं कहा जा सकता है.अब्दुल्लाह हुसैन के उपन्यास 'नादार लोग' نادار لوگ' का एक पात्र है याक़ूब (पंजाबी). वह ज़मीन की सुगंध से परिचित है. ज़मीन चाहे हिंदुस्तान की हो या पाकिस्तान की, किसान को बेदखल करना नहीं जानती है. याक़ूब के साथ कुछ ऐसा ही होता है. भ्रष्ट प्रशासन उसे अपने स्वार्थ सिद्ध करने के उद्देश्य से जागीरदार बनाना चाहता है लेकिन वह किसान साढ़े 12 कल्ले ज़मीन को ही लेना सही समझता है, इतिहासकार ऐसे महजरीनों की कहानियों को समाज से उठाकर उन्हें इतिहास में ज़िंदा नहीं रखना चाहता है, उसे उपन्यासकार ही अपना आशियाना उपलब्ध कराता है. Cont...-/3

सोमवार, 4 जुलाई 2016

मेरी नई पुस्तक. 'उपन्यास के कालचक्र' से/-रंजन ज़ैदी

                                                                                               मेरी नई पुस्तक.  'उपन्यास के कालचक्र' से)                                                                                                                        -रंजन ज़ैदी

                        
पन्यास, अपने समय-काल का आईना हुआ करता है जिसे हम अपने समय का सामाजिक, राजनीतिक ऐतिहासिक दस्तावेज़ भी कह सकते हैं. वह इतिहास नहीं होता है, लेकिन दीवार पर टंगी ऐतिहासिक पेंटिंग में ज़िन्दगी के होने का अहसास अवश्य पैदा कर देता है.
            हमारे सामने भारत-पाक विभाजन की पीड़ा को दर्शाती पेंटिंग हमें अतीत के भूखंडों पर पहुंचाती है तो अकस्मात् कानों में भारत-पाक विभाजन के शिकार डेढ़ करोड़ हिन्दू-मुस्लिम महाजरीनों की चीखें गूंजने लग जाती हैं. वहां तब इतिहास गवाही तो देता है लेकिन उपन्यास अपने समय को सामने ला खड़ा कर देता है. ऐसी चीत्कारें मैंने कराची के सफर के दौरान जिना-पार्क कब्रिस्तान में सुनी हैं. जब पाठकों के सामने उपन्यास 'बस्ती' (इंतज़ार हुसैन) प्रकाशित होकर आया तो इतिहासकारों को पता चला कि महाजरों के कैम्पों में कितनी अनार्की फैली हुई थी, इंसान कितना बड़ा दरिंदा बन चुका था, राज़ खुला कि इंसान लाशों से भी बलात्कार कर सकता है.
      इतिहास बताने की स्थिति में नहीं था कि जो बवंडर आया था उसने नए बदलते परीवश में भारत-पाक दोनों मुल्कों के इंसान को आर्थिक, सामाजिक और व्यवसायिक रूप से विकृत करके रख दिया था, जो कुछ नहीं था, वह महलों में पहुँच गया था, जो बहुत कुछ था वह झुग्गी में सिमट गया था. अस्तित्व के स्थायित्व की लड़ाई ने झीने पर्दों की ओट में मानवीय स्वभाव के हर आयाम की कीमत लगाकर बेचने वाले सौदे के रूप में फुटपाथ तक पहुंचा दी थी.
            पश्चिमी उत्तर प्रदेश का ज़मींदार लाहौर या कराची पहुंचकर रिक्शे की गद्दी पर तो बैठ गया लेकिन वह अपने वतन में रहकर अपनी तथाकथित प्रजा के साथ आज़ाद भारत में खुली सांस लेने के लिए तैयार नहीं हुआ क्योंकि वह खुली आँखों में रहने-बसने वाली नींद में दिखाई देते रहने वाले ज़मींदार को शर्मिंदा नहीं होने देना चाहता था. इसलिए 'चलता मुसाफिर' (अल्ताफ़ फ़ातिमा, उर्दू उपन्यासकार,लाहौर) अपनी रूह को अपने वतन में छोड़कर पाकिस्तान चला तो गया लेकिन आज तक वह अपनी जड़ों से उखड़ नहीं पाया. वह आज भी पाकिस्तान में मुहाजिर बनकर ज़िंदा रहने के लिए अभिशप्त है. अपने समय का इतिहासकार इस तरह की त्रासद स्थितियों के संजाल का रहस्योद्घाटन करने में असमर्थ था, लेकिन उपन्यासकार को अपने पात्रों के साथ परदे के इस पार आने में कोई संकोच नहीं था. वह यशपाल (झूठा सच) के पास भी पहुंचा तो भीष्म साहनी (तमस) के पास भी, इंतज़ार हुसैन (बस्ती) के पास पहुंचा तो कुर्रतुलऐन हैदर ('आग का दरिया') के पास भी.                                                                                                                                                          Cont./-2

गुरुवार, 23 जून 2016

ग़ज़ल/एक मिटटी के प्याले की तरह उम्र कटी/रंजन ज़ैदी /غزل / رنجن زیدی

 کھیل گڑيو کا حقیقت میں بدل جائے گا،
پھر کوئی خواب غمے -- ذيست میں ڈھل جائے گا.
بند مٹھی سے نکل آئے جو سورج باہر،
موم کا شهر ہے، ہر سمت پگھل جائے گا.
دیکھتے -- دیکھتے سب اڑ گئیں چڑیاں یاں سے،
 اب میرا گھر بھی کڑی دھوپ میں جل جائے گا.
ایک مٹی کے پيالے کی طرح عمر کٹی،
دھوپ کی طرح رہا وقت نکل جائے گا.
گھر کی دیواریں بھی بوسيد کفن اوڑھے ہیں،
اب توپھا میرے خوابوں کو نگل جائے گا.
ہم نے مایوس كمدو سے نہ جوڑے رشتے،
ہجر کی رات کا یہ چاند ہے، ڈھل جائے گا.

खेल गुड़ियों का  हकीकत में बदल जायेगा, 
फिर कोई ख्वाब ग़मे-ज़ीस्त में ढल जायेगा.
 
बंद मुट्ठी से निकल आये जो सूरज बाहर,
मोम का शह्र है, हर सिम्त पिघल जायेगा.
 
देखते - देखते सब उड़ गईं चिड़िया यां  से,
अब मेरा घर भी कड़ी धूप में जल जायेगा. 

एक मिटटी के प्याले की   तरह उम्र कटी,
धूप  की  तरह  रहा  वक़्त निकल जायेगा.   

घर  की  दीवारें भी बोसीदः कफ़न ओढ़े हैं,
अबकी तूफाँ मेरे ख़्वाबों को निगल जायेगा. 

हमने मायूस कमंदों से   न    जोड़े   रिश्ते, 
हिज्र की रात का ये चाँद है,   ढल जायेगा.
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