सोमवार, 5 जनवरी 2015

Peshawer Geet / Dr. Ranjan Zaidi

                                                                                                                                                               
Peshawer-Geet .
Dr. Ranjan Zaidi 



 کیوں دریا شوریشے پیہم ہے ؟                                                    
کیوں جنگل-جنگل ماتم ہے؟                                                         
پیتے ہیں  زہر پر زندہ ہیں ؟
کیوں غیب کے جادو بیدم  ہیں                                                    
اے یار بتادے تو مجھکو                                                                کیوں موجبے طغیانی چہرہ،                                                                                                       
( 2 )
,کیوں شب کے حنائی ہاتھوں سے  
  بارش کی پتنگیں اڑتی  ہیں،
,کیوں دستے - دعاکی چھتری میں
سوراخ سے بوندیں گرتی ہیں،
اے یار بتادے تو مجھکو                                                            
کیوں خوف کی ہے زنجیر زنی،
کیوں آنکھ میں بھیگے جگنو ہیں؟

( 3 )
کیوں شال اتاری پھولوںنے؟
کیوں صبرو-رضا نے دم توڈا،
کیوں آگ قدیمی رشته بن،
شعلوں  نے ہواؤں سے جوڑا ،
اے یار بتادے تو مجھکو
کیوں جھیل  کی تہ  میں طغیانی؟
کیوں آنکھ میں بھیگے جگنو ہیں؟

( 4 )
سورج کا تعاقب لے آیا،
سنسان جزیروں  میں مج ھکو،
غاروں کی ابابیلوں نے  دے،
کچھ راز کٹورے بھر مجھکو،
اے یار بتادے تو مجھکو
حجرے کی وو چیخیں کیسی تھیں؟
کیوں آنکھ میں بھیگے جگنو ہیں؟
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सोमवार, 13 अक्तूबर 2014

डॉ. रंजन ज़ैदी के फुटकर अशआर

डॉ. रंजन  ज़ैदी * के फुटकर अशआर-

जिस्म के कोई से दरिया में चलो बह जाएँ,
दिल समंदर है मेरे दोस्त वहीं मिल लेना।

मत जा बुलंदियों पे बहुत खौफ खायेगा,
तन्हाइयों का बोझ भी ढोया  न जायेगा।

चर्ख से जब भी कोई तारा  टूटा तो हम समझे ये,
मेरा ख़ालिक़ ये कहता है मांग दुआएं जितनी मांग।

कोई न ले के आएगा आंसू की छागलें, 
कब तक  जलाके दिल को चराग़ाँ करोगे तुम?

धूप  की सियासत का क्यों शिकार होते हो?
बादलों पे बैठे हो ये बरस भी सकते हैं।

घुप अँधियारा सीला जीवन तन्हाई के हाले  हैं,
आकर देख बहुरिया घर के हर कोने में जाले हैं।

दिए जलाके कोई इंतज़ार करता है,
यक़ीन है के सितारों के पार है कोई।

वोट तो तुमको दे देंगे हम लेकिन इतना याद रहे,
आँख मिलाना पड़ सकता है सत्ता के गलियारे में.
डॉ. रंजन  ज़ैदी*



दर्द के झोंके धीरे-धीरे/डॉ. रंजन ज़ैदी*,

ग़ज़ल/ दर्द के झोंके धीरे-धीरे/डॉ.रंजन ज़ैदी*,   
खिड़की खोले झाँक  रहा थाकबसे पीला-पीला  चाँद .                     
दश्त में तारे शबनम-शबनमउसमें ही जा बैठा  चाँद

चाँद की  किरनें   धीरे-धीरेनीम के पेड़ पे जा    बैठीं,  
दूर उफ़ुक़ में डूब रहा है, मुफलिस की उम्मीद का चाँद
  
बारी-बारी टूट गए  सब, चूड़ीकंगन और अरमान,                     
फिर भी आस अभी  है बाकी, रात को दस्तक देगा  चाँद

दर्द  के   झोंके   धीरे-धीरे  उसको   कुएं   तक  ले  आये,   
उसने  झाँक  के  देखा    दिलपानी  में  बैठा था चाँद.

बादे-सबा  खुशबू  की  छागल  लेकर  तू  गुलशन  में जा.
वक्ते-सहर  जब  लौटके आये, साथ में  लेकर आना चाँद.
Copyright :डॉ.रंजन  ज़ैदी * 

रविवार, 12 अक्तूबर 2014

तेरी कशिश में /ग़ज़ल/डॉ.रंजन ज़ैदी

तेरी कशिश मेंग़ज़ल/डॉ.रंजन ज़ैदी* 


तेरी  कशिश  में  ज़मीं  का  गुमान  होता है.
अभी   न  खींच  अभी  आसमान   सोता  है.

तमाम  सब्ज़  परिंदे  हैं  कत्लगाह  में  क्यों,
शहर के  बीच ये  किसका मकान  जलता है ?

कड़ी  है   धूप  दरख्तों  का  सायबान   नहीं,
मैं  कैसे  सोऊँ  यहां   हर चटान जलता   है.

हवा  जो  रोये तो  बच्चा  भी चीख उठता  है,
रगों  में  बाप  के  दरिया  उफान   भरता  है.

दरक   रही   है  ये  दीवार  रिस  रहे  रिश्ते,
लुहु   का   रस   भी  बड़े  इम्तेहान  लेता है.

Copyright :ग़ज़ल/डॉ.रंजन ज़ैदी 



गुरुवार, 2 अक्तूबर 2014

ग़ज़ल/ख्वाब....... /डॉ. रंजन ज़ैदी*


ग़ज़ल/तेरी कशिश में/ डॉ.रंजन ज़ैदी

लफ़्ज़ों का बाज़ार  सजा है, बेच ले   हर   मौसम  का  ख्वाब.
हुनरवरों    का    ये    मेला    है, संभल  के लेना- देना ख्वाब.

नन्हीं - नन्हीं  डिबियां रखले, रखले  उनमें  रस्मो - रिवाज,
उम्र की गलियां कब सो जाएँ, आजाये कब मौत का   ख्वाब.

ख्वाबों  की  ताबीर  पे  हम  तनक़ीद को मोहलत दे तो दें,
लेकिन ऐ दिल इन आँखों से देखें  कैसे, क्या - क्या  ख्वाब.

शजर-शजर से पूछ  न  लेना   हिज्र के  पत्तों  का  मौसम,
डरा-डरा  है शाख  का  पत्ता,  डरा  है  हर  पेवस्ता  ख्वाब.

आंसू,  यादें   खंडहर-खंडहर,  ज़ख़्मी   साये,    जलती   धूप,
हिज्र में सोना,वस्ल में जगना, अब न दिखा यख़बस्ता  ख्वाब.
Copyright :डॉ. रंजन  ज़ैदी*

रविवार, 28 सितंबर 2014

अब सारी तहज़ीबें चुप हैं/ग़ज़ल/डॉ.रंजन ज़ैदी



अब सारी तहज़ीबें चुप हैं/ग़ज़ल/डॉ.रंजन ज़ैदी *

किसके खौफ से सहमी-सहमी, किसकी याद में खोई है.

भीगे   वर्क   से   लिपटी   तितली जाने कब से  सोई  है.


क़तरा-क़तरा   गलते-गलते   शबनम    आंसू  बन बैठी, 
 
रात की शोरिश आग  जलाये   लोरी  सुनकर   सोई   है.


माँ सिरहाने  बैठी  कब से  आँचल  में  इक  चाँद  लिए, 
 
हर  दस्तक  पर  वह  सुबकी  हैहर आहट पर रोई है.


बाढ़  में  सब  कुछ  ऐसे  डूबाजैसे  नूह   का   तूफ़ां हो,

चश्मे-ज़दन में बर्फ पिघलकर, बादल   से   टकराई   है.


सारा   जंगल    बहते-बहते    मेरी  नाव  में      बैठा, 
 सारी   तहज़ीबें   अब  चुप हैं,   कैसी  आफ़त  आई   है.


कोई      तितली,   फूल जूड़ा, खुशबू में भी बेकैफी,

सूखे पत्तों    की    कब्रों   पर, बस्ती कितना   रोई   है.
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कॉपीराइट : ग़ज़ल/डॉ.रंजन ज़ैदी *