ग़ज़ल/ दर्द के झोंके धीरे-धीरे/डॉ.रंजन ज़ैदी*,
खिड़की खोले झाँक रहा था, कबसे पीला-पीला चाँद .
दश्त में तारे शबनम-शबनम, उसमें ही जा बैठा चाँद.
चाँद की किरनें धीरे-धीरे, नीम के पेड़ पे जा बैठीं,
दूर उफ़ुक़ में डूब रहा है, मुफलिस की उम्मीद का चाँद.
बारी-बारी टूट गए सब, चूड़ी, कंगन और अरमान,
फिर भी आस अभी है बाकी, रात को दस्तक देगा चाँद.
दर्द के झोंके धीरे-धीरे उसको कुएं तक ले आये,
उसने झाँक के देखा ऐ दिल, पानी में बैठा था चाँद.
बादे-सबा खुशबू की छागल लेकर तू गुलशन में जा.
वक्ते-सहर जब लौटके आये, साथ में लेकर आना चाँद.
Copyright :डॉ.रंजन ज़ैदी *
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