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रविवार, 28 सितंबर 2014

मैंने झील की तह में देखा../ डॉ.रंजन ज़ैदी*


मैंने झील की तह में देखा../ डॉ.रंजन ज़ैदी*
खून से लथपत तलवारों का हर दरिया से रिश्ता था।
लेकिन वो  मिटटी  में  रहकर अपने नग्मे बोता था।
मैंने झील की तह में देखा आंसू का इक   चश्मा था,
एक परी थी शहज़ादा था, रोज़ी का कुछ मसला था।
वो अक्सर आईना  रखकर खुद से  बातें  करता था,
हद्दे-उफ़ुक़ पर कोई परिंदा उसको  तकता रहता था।
घर की चौखट पर दो आँखें शाम ढले तक ज़िंदा थीं,
एक  परिंदा  जब  घर  लौटा, ​बस्ती में सन्नाटा था।
तेज़ हवा  का हरइक झोंका पूछे आकर एक  सवाल,
छतरी  खोले  बूढा  बरगद  बारिश से क्यों डरता था।
कितनी कब्रें, कितने कत्बे, उजड़ी बस्ती, उजड़े लोग,
झील  के  ठहरे  पानी  में भी चाँद  उतरकर रोता था।
Copyright ;डॉ.रंजन ज़ैदी*         ---------------