तेरी कशिश में/ ग़ज़ल/डॉ.रंजन ज़ैदी*
तेरी कशिश में ज़मीं का गुमान होता है.
अभी न खींच अभी आसमान सोता है.
तमाम सब्ज़ परिंदे हैं कत्लगाह में क्यों,
शहर के बीच ये किसका मकान जलता है ?
कड़ी है धूप दरख्तों का सायबान नहीं,
मैं कैसे सोऊँ यहां हर चटान जलता है.
हवा जो रोये तो बच्चा भी चीख उठता है,
रगों में बाप के दरिया उफान भरता है.
दरक रही है ये दीवार रिस रहे रिश्ते,
लुहु का रस भी बड़े इम्तेहान लेता है.
Copyright :ग़ज़ल/डॉ.रंजन ज़ैदी *
अभी न खींच अभी आसमान सोता है.
तमाम सब्ज़ परिंदे हैं कत्लगाह में क्यों,
शहर के बीच ये किसका मकान जलता है ?
कड़ी है धूप दरख्तों का सायबान नहीं,
मैं कैसे सोऊँ यहां हर चटान जलता है.
हवा जो रोये तो बच्चा भी चीख उठता है,
रगों में बाप के दरिया उफान भरता है.
दरक रही है ये दीवार रिस रहे रिश्ते,
लुहु का रस भी बड़े इम्तेहान लेता है.
Copyright :ग़ज़ल/डॉ.रंजन ज़ैदी *