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शुक्रवार, 18 जुलाई 2014

हकीम मोमिन खां मोमिन-3/ डॉ.रंजन ज़ैदी,ज़ैदी

गतान्क से आगे -/3
हकीम मोमिन खां 'मोमिन'


हाँ अगर हम आबे-हयात का ज़िक्र करे तो कतई गलत होगा. आबे-हयात के अनुसार इसी ग़ज़ल को लेकर शेफ्तः ने फारसी में इतनी तारीफ लिखी थी कि कालांतर में विद्वानों को उसके उद्धरण तक देने ज़रूरी हो गए थे.  
शायद लोगों को यह जानकर हैरानी हो कि मोमिन बहुत अच्छे नुजूमी यानी ज्योतिषी भी थे. इल्म--नुजूम के एक भविष्यवक्ता के रूप में मोमिन शीघ्र ही महफ़िलों की रौनक बन गए. वह स्वभाव से हंसमुख, रंगीन, जिंदादिल, दोस्तपरस्त, पीने के शौक़ीन और जवान लड़कियों से घिरे रहने वाले नौजवान शायर थे
एक बार सामने एक ऐसा शख्स आया जो किसी मजनूँ  की तरह दिखाई दे रहा था. मोमिन ने अपने इल्म से उसकी कुंडली बनायी और कहा कि नाहक वह जनुओं की तरह भटक रहा है. इल्म कहता है कि जा मिल, तू  कहता है कि वह है संग-दिल. नहीं किया तुम ने अहकाम आजमाए, इन्हीं बातों ने तो ये दिन दिखाए. अगर वह अपने महबूब से जाकर मिले तो यह जुदाई के लम्हे ख़त्म हो जायेंगे. ये सब कुछ सच प़र इतना भी कहेंगे, कि जीते हैं तो एक दिन मिल रहेंगे. खुदा गवाह है कि मजनूँ  की लैला भी मिलने के लिये उसी तरह तड़प रही है, जिस तरह मजनूँ इधर भटक रहा है. यह बात सचमुच हैरत कर देने  वाली थी, लेकिन थी बिलकुल सच. दोनों तरफ आग बराबर लगी हुई थी. 'अभी से गर जफा कम हो तो अच्छा, ज़ियादः रब्त बाहम हो तो अच्छा/नहीं तो होगी उसकी शर्मसारी, किसे मंज़ूर है खिजलत तुम्हारी'.     
      इस बात में कोई दो राय नहीं है कि मोमिन साहित्यकारों में अमीर खुसरो से लेकर  मीर तकी मीर की शायिरी और उनका चिंतन उपलब्ध था लेकिन जब दुनिया में इकबाल ने आँख खोली तो उन्होंने खुद को एक ऐसी पश्चिमी सांस्कृतिक और शैक्षिक संगठनों के प्रभा-मंडल में पाया जिससे ग़ालिब की सहमति उनकी आर्थिक मजबूरी से सम्बद्ध कही जा सकती है क्योंकि उन्हें 'खानदान-ए-मुगलिया' से वसीका मिलता था लेकिन अपने पत्रों में वह अंग्रेजों की प्रशंसा से बचने की कोशिश ज़रूर करते थे, किन्तु मोमिन को वह अपने रास्ते से आगे बढ़ते देखना नहीं चाहते थे. हालाँकि ग़ालिब के प्रशंसकों ने इस धारणा को स्वीकार नहीं किया. क्योंकि बेदिल की शायरी इतनी बुलंद नहीं थी जितनी बुलंदी प़र ग़ालिब की शायरी पहुँच चुकी थी. तर्ज़े-बेदिल में रेख्ता लिखना, असदुल्लाह खां क़यामत है.  बात सही भी थी. ग़ालिब को तो मोमिन से खौफ था. मोमिन की ईर्ष्या  ने ही ग़ालिब को शायरी में इतने गहरे तक उतार दिया कि मोमिन ग़ालिब के सामने बहुत छोटे से लगने लगे, 'धमकी में मर गया जो बाबे-नबर्द था.....  
यही नहीं, वह  दिल्ली कालेज में पालकी पर बैठकर नौकरी मांगने के लिए भी जा चुके थे। फोर्ट विलियम कालेज कलकत्ता में था,  और उसके प्रभाव को भी ग़ालिब मान्यता दे चुके थे। अँगरेज़ अल्लामा इकबाल के भी प्रशंसक थे लेकिन वह  उर्दू साहित्य के आधुनिक काल  के ऐसे  प्रथम  प्रगतिशील शायिर थे जिन्होंने पहली बार  ब्रिटिश साम्राज्यवाद की आलोचना की थी। इस ओर  लोगों का ध्यान बांगे-दराँ में पहली बार  सर अब्दुल कादिर ने आकर्षित किया था।  
उर्दू शयिरी में दार्शिनिक चिंतन का इस्तेमाल सर्व-प्रथम ग़ालिब ने किया, वह अधुनितावाद की ओर बढने  के इच्छुक नज़र आते हैं जैसा कि 'आईने-अकबरी' पुस्तक पर की गई सर सय्यद  की अपनी टिपण्णी के अध्यन से पता चलता है। इनसे पूर्व की शयिरी में शास्त्रीय काव्य और काव्य में अध्यात्मवाद या आत्मवाद  का प्रभाव परिलक्षित था।  (END)
Copyright : डॉ.रंजन ज़ैदी*                                                              

गुरुवार, 17 जुलाई 2014

हकीम मोमिन खां मोमिन./डॉ.रंजन ज़ैदी



हते है कि शायर जन्मजात शायर होता है. किन्तु उसकी शायरी उसके परिवेश और वातावरण से प्रभावित होती है. शायद कहीं तक सही भी हो.
अरब के रेगिस्तान की ओर नज़र डालें तो हम देखेंगे कि अरब का शायर इब्नुल-मोत्नर अगर राजशाही से होता तो शायद यह शेर कभी कह पाता-
फानाज-रुल्या कर्वर्क मिन फज़तः, क़दास्क़ल्तः हम्वाल्तः मिन अम्बर.(इब्ने-रूमी)
(यानी, चाँद को देखकर अम्बर के बोझ से दबी हुई चांदी की कश्ती की ओर ध्यान आकर्षित होना तभी संभव हो सकता है जब किसी ने इसे देखा हो.)
अरब के उस युग में जब वहां जेहालत का बोलबाला था और वहां के लोग प्राकृतिक दृश्यों के अतिरिक्त तो कुछ देख-समझ सकते थे, और ही कुछ इससे इतर सोच सकते थे, इब्नुल मोत्नर की ऐसी परिकल्पना उसके जन्मजात शायर होने की गवाही देती है. यहाँ एक बात यह भी महत्वपूर्ण है कि कुछ शायर ऐसे होते हैं जो अपनी मानसिक सोच और परिकल्पना से ऐसे वातावरण में पहुँच जाते हैं जो उसके इर्द-गिर्द के परिवेश में नहीं होता है. इसी लिये कहा जाता है कि शायरी वास्तविकता नहीं बल्कि वास्तविकता की अभिव्यक्ति होती है. वह कोई वैयक्तिक अनुभूति नहीं बल्कि अनुभूति का बयान है.यही कारण है कि शायरी की अभिव्यक्ति प़र की जाने वाली विभिन्न प्रकार की आलोचना मनुष्य की प्रकृति का एक हिस्सा है. कहीं रूमी जन्म लेता है तो कहीं, कालीदास, कहीं होमर जन्म  लेता है तो कहीं तुलसीदासकहीं शेक्सपिअर तो कहीं ग़ालिब. सूर्य का पिंड वही है. उसके उदय और अस्त होने की प्रक्रिया आदिकाल से एक जैसी है. किन्तु  यही सूर्य भिन्न स्थितियों को जन्म देता है. एक व्यक्ति के लिये यह प्रकाश-पुंज और जीवन का प्रतीक बन जाता है तो दूसरे के लिये वह भय जीवन को नष्ट कर देने की शक्ति का स्रोत. इनमें कोई शायर भी नहीं है.यह दो साधारण व्यक्तियों की मान्यताएं है. एक प्रसन्न होकर गुनगुना उठता है, दूसरा उसके आगे नतमस्तक होकर उसे भागवान बना देता है. शायर भी ऐसे ही विरोधभासों से मुक्त नहीं है. हालाँकि सभी के आकर्षण का केंद्र-बिंदु एक सूर्य ही होता है, किन्तु चिंतन, धारणाएं और आस्थाएं परस्पर भिन्नता लिये हुए होती हैं. रात के सन्नाटे में पपीहा किसी एक दिल को उम्मीद का सन्देशवाहक लगता है तो दूसरे को विरह का दूत. यही है वह भिन्नता जो व्यक्तियों को एकदूसरे से जुदा करती है. यही भिन्नता ग़ालिब और मोमिन में थी, जौक और इंशा में थी.                           
ज़माना था आखरी मुग़ल बहादुरशाह ज़फर का. यह वह ज़माना था जब आखरी मुग़ल की ताजदारी की शम्मा भड़क रही थी.  हालाँकि अभी तक दिल्ली के दरवाजे प़र १८५७ के ग़दर की धमक नहीं पहुंची थी. इसीलिए बादशाह के दरबार की महफ़िलों की रौनकें अपने आब--ताब के साथ बदस्तूर जलवाअफरोज थीं. शेरो-शायरी की महफ़िलों में ग़ालिब, जौक, मोमिन, ममनून, आज़ुर्दः ,रख्शां, शेफ्तः, सहबाई, और अलवी जैसे शोअरा अपने कलाम की शम्में जलाये हुए थे, तभी एक ऐसा शायर दुनिया से कूच कर गया जिसने खुद्दारी को अपना तकिया बनाया था और जिसने दरबार--शाही की कभी तारीफ नहीं की थी और ही अंग्रेजों की रही आंधी से  खौफज़दः था. यह शायर था  हकीम मोमिन खां मोमिन. ...(जारी/-2)
(यह ऐवाने-अदबहै. यहां अदब की महफ़िलें साजेंगीं, आप भी शामिल होकर अदब को फ़रोग़ दें. दुनिया के किसी भी Copyright डॉ.रंजन ज़ैदी*)