गुरुवार, 23 जून 2016

ग़ज़ल/एक मिटटी के प्याले की तरह उम्र कटी/रंजन ज़ैदी /غزل / رنجن زیدی

 کھیل گڑيو کا حقیقت میں بدل جائے گا،
پھر کوئی خواب غمے -- ذيست میں ڈھل جائے گا.
بند مٹھی سے نکل آئے جو سورج باہر،
موم کا شهر ہے، ہر سمت پگھل جائے گا.
دیکھتے -- دیکھتے سب اڑ گئیں چڑیاں یاں سے،
 اب میرا گھر بھی کڑی دھوپ میں جل جائے گا.
ایک مٹی کے پيالے کی طرح عمر کٹی،
دھوپ کی طرح رہا وقت نکل جائے گا.
گھر کی دیواریں بھی بوسيد کفن اوڑھے ہیں،
اب توپھا میرے خوابوں کو نگل جائے گا.
ہم نے مایوس كمدو سے نہ جوڑے رشتے،
ہجر کی رات کا یہ چاند ہے، ڈھل جائے گا.

खेल गुड़ियों का  हकीकत में बदल जायेगा, 
फिर कोई ख्वाब ग़मे-ज़ीस्त में ढल जायेगा.
 
बंद मुट्ठी से निकल आये जो सूरज बाहर,
मोम का शह्र है, हर सिम्त पिघल जायेगा.
 
देखते - देखते सब उड़ गईं चिड़िया यां  से,
अब मेरा घर भी कड़ी धूप में जल जायेगा. 

एक मिटटी के प्याले की   तरह उम्र कटी,
धूप  की  तरह  रहा  वक़्त निकल जायेगा.   

घर  की  दीवारें भी बोसीदः कफ़न ओढ़े हैं,
अबकी तूफाँ मेरे ख़्वाबों को निगल जायेगा. 

हमने मायूस कमंदों से   न    जोड़े   रिश्ते, 
हिज्र की रात का ये चाँद है,   ढल जायेगा.
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