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बुधवार, 27 जुलाई 2022

हिंदी में मुस्लिम साहित्यकारों का योगदान' ग्रंथमाला-2022

'हिंदी में मुस्लिम साहित्यकारों का योगदान' ग्रंथमाला की दूसरी कड़ी-2022 की एक उभरती कथाकार हैं तबस्सुम जहां।. आकलन प्रस्तुत है, जानी-मानी लेखिका, आलोचक और विदुषी डॉ. अल्पना सुहासिनी का । **********************************************
हिंदी साहित्य में मुस्लिम रचनाकारों के योगदान की जब भी बात चलती है तो हम पाते हैं कि हिंदुस्तानी तहज़ीब वाले इस देश में जहाँ हिन्दी उर्दू या हिंदू मुस्लिम का भेद बहुत गहराई से देखने में नज़र आता हो, उस देश के साहित्य में यह सीमा रेखा खींचना भी एक असाध्य कार्य है। जहां रसखान कृष्ण भक्ति में डूबकर जब लिखते रहे तो साहित्य की बेमिसाल दौलत हमें मिली और न जाने कितने ही मुस्लिम रचनाकारों ने हिंदी साहित्य को समृद्ध किया। परिस्थितिवश साहित्य के क्षेत्र में हिंदू-मुस्लिम वर्गीकरण कुछ अजीब सा लगता है लेकिन इतिहास की क्रमबद्धता के लिए कई बार कदाचित आवश्यक भी जान पड़ता है। कविता के क्षेत्र में अनेक मुस्लिम कवि हुए जिन्होंने हिन्दी काव्य को समृद्ध किया लेकिन अगर कहानी के क्षेत्र में भी दृष्टि घुमाएं तो भी मुस्लिम कहानीकारों की एक लंबी फेहरिस्त नज़र आती है जिसमें वरिष्ठ कथाकार गुलशेर अहमद खां शानी, राही मासूम रज़ा, असगर वजाहत, नासिरा शर्मा, रंजन ज़ैदी, मंजूर एहतशाम, अब्दुल बिस्मिल्लाह और इब्राहिम शरीफ़ जैसे लेखक हुए तो वहीं दूसरी ओर इस्मत चुगताई और सादत हसन मंटो जैसे लेखकों ने भी हिंदी साहित्य को समृद्ध करने में अपना भरपूर योगदान दिया। हालांकि कहानी के क्षेत्र में पहला आग़ाज़ सैय्यद इंशा अल्ला खां से भी माना जा सकता है जिनकी कहानी "रानी केतकी की कहानी" को प्रथम कहानी होने का दावा किया जाता है। खैर, वर्तमान कथा साहित्य की अगर बात की जाए तो बहुत गर्व के साथ कहा जा सकता है कि नई पीढ़ी के बहुत से समर्थ रचनाकार इस दिशा में बहुत उम्दा कार्य कर रहे हैं। इसी श्रृंखला में एक नाम है डॉ. तबस्सुम जहां का। हालांकि बहुत से पाठको को शायद यह नाम बिलकुल नया सा लगे लेकिन अगर पाठक तबस्सुम जहां की कहानियां पढ़ना शुरू करेंगे तो अनवरत पढ़ना जारी रखेंगे। असल में कहानीकार अपनी पीढ़ी तथा अपने समाज का आईना होता है क्योंकि समाज में जो घटित हो रहा होता है, वही रचनाओं में झलकता है, बिल्कुल यही खूबी डॉ. तबस्सुम जहां की लघुकथाओं तथा कहानियों में दिखाई देती है। दिल्ली में जन्मी तबस्सुम जहां सात बहन भाइयों में सबसे छोटे से बडी हैं। इनके पिता उच्च संस्कारों वाले उदार व्यक्ति थे जिनका उर्दू भाषा में अच्छा ज्ञान था। बचपन से ही इनको अपने माता-पिता से साम्रदायिक सौहार्द तथा भाईचारे की शिक्षा मिली जो इनकी रचनाओं में भी झलकती है। दुर्भाग्य कहें या नियति का क्रम, सोलह बरस की आयु में इनके पिता का साया इनके सिर से उठ गया। पिता के बाद हुई आर्थिक विसंगतियों ने घर की दशा बदतर कर दी। हालात ऐसे विपरीत हुए कि आर्थिक आभाव के चलते इनकी पढ़ाई बीच मे ही छूट गयी। तीन बरस बाद इनकी पढ़ाई का उत्तरदायित्व इनकी माता ने उठाया और फिर से इनका स्कूल में दाखिला कराया। इस शिक्षा के दूसरे अवसर का तबस्सुम ने भरपूर लाभ उठाया और लगन से पढ़ते हुए बारहवीं कक्षा में 'इंदिरा गाँधी सर्वोत्तम छात्रा' का पुरुस्कार प्राप्त किया। जब यह स्नातक दूसरे वर्ष की परीक्षा दे रही थी तो लंबी बीमारी के चलते इनकी माता भी चल बसीं । माता के जाने से वह इतनी आहत हुईं कि उस बरस की बाक़ी परीक्षा नहीं दे सकीं। इतना ही नहीं, माता की मृत्यु के ठीक पांच दिन बाद वह जिस घर में पैदा हुई, पली बढ़ीं, वह घर भी उनको रिश्तेदारों की उपेक्षा के चलते छोड़ना पड़ा। एक ओर माँ के जाने का दुख तो दूसरी ओर घर छिनने का सदमा। तबस्सुम लगभग टूट सी गयीं। जैसे-तैसे अपने छोटे भाई के साथ अपनी एक मित्र के यहां किराए के घर पर रहीं। थोड़ा संभली तो अपनी पढ़ाई फिर से शुरू करने का फैसला किया। उनकी शिक्षा के प्रति लगन को देखते हुए उनके दोस्तों और जानकारों ने उनकी फीस का प्रबंध किया। समय कटता रहा और अपने छोटे भाई को संभालते, गिरते-पड़ते आखिरकार जामिया मिल्लिया इस्लामिया से ही एम ए, एम फिल तथा पी एच-डी पूरी की। घर में चूंकि उदार व पढ़ा लिखा वातावरण था, अतः कम आयु में ही तबस्सुम ने उर्दू में तुकबंदी लेखन शुरू कर दिया था। अरबी पढ़ने मदरसे जातीं, तब मौलवी साहब को अपना सबक सुना कर बाक़ी समय उनसे छुप कर शेर व ग़ज़ल सरीखी तुकबंदियां कायदे पर ही लिखने लगती। दसवीं तक आते-आते इनका हिंदी भाषा की ओर रुझान बढ़ गया और उन दिनों भारी भरकम पुराने उपमानों व प्रतीकों का प्रयोग करते हुए एक लंबी कविता भी लिख डाली। बारहवीं में कविता लेखन के साथ छोटे-मोटे आलेख भी लिखने लगीं जिसे वह उस समय अपनी अध्यापिकाओं को दिखातीं। उन्हें कविता के क्षेत्र में बड़ा अवसर तब मिला जब उनकी पहली प्रकाशित कविता ' हे ईश्वर' 2013 में' प्रतिष्ठित पत्रिका 'संवदिया' के युवा कविता विशेषांक में छपी। कुछेक दिन बाद ही विश्व पुस्तक मेले के साहित्यिक मंच पर कविता के एक प्रोग्राम में इन्हें कविता सुनाने के लिए बुलाया गया। बस यही दिन था जब इनका बड़े लेखकों व साहित्यकारों से संपर्क हुआ। इनकी दूसरी बड़ी कविता ' ये पत्तियां' लोकस्वामी' पत्रिका में छपी। इतना ही नहीं, उसके बाद वरिष्ठ कवयित्री निर्मला गर्ग ने नए अल्पसंख्यक कवि-कवयित्रियों को प्रकाश में लाने के लिए "दूसरी हिंदी' पुस्तक का संपादन किया। इस संकलन में तबस्सुम जहां की कविताएं भी संकलित हैं। इतना होने पर भी कविताओं में इनका मन नहीं रमा। उनके अनुसार कविताओं में वह स्वयं को बंधा हुआ महसूस कर रही थीं अतः उनका रुझान छोटी कहानी और लघुकथाओं की ओर होने लगा। डॉ तबस्सुम जहां की प्रथम लघुकथा 'औलाद का सुख' दैनिक अखबार 'चौथी दुनिया' मे प्रकाशित हुई जो निर्धन अशिक्षित मुस्लिम समाज की विसंगतियों पर आधारित थी। दूसरी लघुकथा 'सेटिंग' अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका 'सद्भावना दर्पण' में छपी यह मूलतः लैंगिक विषमता पर केंद्रित थी। सेटिंग रचना पढ़ कर प्रसिद्ध कवि एवं आलोचक मंगलेश डबराल ने उनसे कहा था कि "तुम्हारी शैली मंटो की तरह है, एकदम सटीक।" तीसरी रचना 'वह जन्नत जाएगी' भी मुस्लिम स्त्री जीवन की विद्रूपताओं पर आधारित थी। चौथी लघुकथा 'लक्ष्मी' मज़दूर स्त्री की समस्याओं को परिलक्षित करती है। उसके बाद लम्बे समय तक उन्होंने कोई रचना नहीं की परन्तु यदा-कदा उनके आलोचनात्मक आलेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे। जिसमें किन्नर समाज पर आधारित 'सामयिक सरस्वती' में छपा लेख। 'सद्भावना दर्पण' पत्रिका में मशहूर लेखिका 'रजनी मोरवाल' की थर्ड जेंडर पर लिखी कहानी 'पहली बख्शीश' पर लिखी उनकी समीक्षा, उनके द्वारा सामयिक सरस्वती के थर्ड-जेंडर विशेषांक की समीक्षा, 'चौथी दुनिया' समाचार पत्र में राज कुमार राकेश के उपन्यास 'धर्मक्षेत्र' पर लिखी समीक्षा महत्वपूर्ण है। इतना ही नहीं, वरिष्ठ लेखक एवं नाटककार प्रताप सहगल के कहानी संग्रह 'मछली-मछली कितना पानी' पर इनका लिखा लेख 'निज जीवन की तलाश करते लोग।' ब्रिटेन की पत्रिका 'पुरवाई' तथा भारत में अंतर्राष्ट्रीय हिंदी पत्रिका 'साहित्य मेघ' में प्रकाशित हुआ। कोरोना महामारी में जब पूरी दुनिया भय और त्रासदी के चलते लॉकडाउन की विभीषिका को झेल रही थी, उस समय तबस्सुम जहां संवेदनशील लेखन की ओर उन्मुख हुई। कोरोना तथा लॉक-डाउन विषय पर उनकी प्रत्येक सप्ताह तीन महीने तक सिलसिलेवार लघुकथाएं 'भारत भास्कर' समाचार पत्र में छपीं । कोरोना विषय पर उनकी प्रथम लघुकथा 'कोरोना वायरस' छपी जो एक वर्कर तथा उसके बॉस के अमानवीय संबंधों पर आधारित थी। यह बेहद प्रसिद्ध हुई। इसके अलावा समाज का आईना दिखाती 'भूख और लेबल' निराशा में आशा का संचार करती तथा मानवीय पक्षों को उजागर करती लघुकथा 'क्यों निराश हुआ जाए' व एक हवलदार के भीतरी मार्मिक पक्ष को उकेरती लघुकथा 'रामफल' उस समय सोशल मीडिया पर बहुत सराही गईं। मीडिया की साम्प्रदायिक पक्ष पर उसकी भूमिका पर प्रश्नचिन्ह लगाती लघुकथा 'ईश्वर के दूत' हिन्दू-मुस्लिम-सौहार्द दर्शाती 'देवी माँ' भी विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। कोरोना में सब कुछ बन्द होने से लोग जो जहां थे, वहीं फंस कर रह गए। कुछ लोगों तक सहायता पहुंची तो कुछ के पास नहीं। ऐसी ही भूख और लाचारी से जूझते परिवार की कहानी लघुकथा 'बस दो दिन और' में देखी जा सकती है। लॉक डाउन पर प्रवासी मज़दूरों के पलायन तथा उनके जीवन के दरबदर होने को दिखाती उनकी लघुकथा 'पलायन' बहुत ही प्रसिद्ध हुई। पलायन करते मज़दूरों और उनकी पीड़ादायक यात्रा को सजीव रूप में वर्णन करती उनकी लघुकथा 'बस थोड़ी दूर और' हज़ारों किलोमीटर का कष्टकारी सफर पैदल तय करके गाँव पहुंचे, वहाँ बेरोज़गारी और गरीबी का दंश झेल कर वापस शहर आते बेबस मज़दूरों पर आधारित उनकी मार्मिक लघुकथा "शहर वापसी" एक बारगी पाठकों की आंखे नम कर जाती हैं । कोरोना काल मे हुई प्राइवेट अस्पताओं की लूट खसोट का वर्णन तबस्सुम जहां अपनी लघुकथा 'अपने-अपने भगवान' में करती हैं। 'भूख बनाम साहित्य' कहानी के ज़रिए वे अकादमिक जगत व साहित्य जगत से जुड़े लोगों की असंवेदनशीलता को दिखाती हैं। तबस्सुम जहां सामयिक विषयों पर पैनी नज़र रखती हैं यही कारण है कि उनकी प्रत्येक रचना सामयिक घटनाओ पर आधारित है। ओरंगाबाद में घर वापस जाते मज़दूरों की मालगाड़ी से हुई भीषण वीभत्स दुर्घटना पर आधारित उनकी कहानी 'मौत बेआवाज़ आती है' बड़े राष्ट्रीय अख़बार 'दैनिक भास्कर' के लगभग आधे पृष्ट पर छपी इस कहानी की उन्मुक्त कंठ से वरिष्ठ कवयित्री तथा आलोचक 'निर्मला गर्ग' ने प्रशंसा की तथा नेरेशन की दृष्टि से इस कहानी को बेजोड़ बताया। यह कहानी इतना अधिक प्रसिद्ध हुई कि इस पर बॉलीवुड डायरेक्टर एक्टर प्रतिभा शर्मा ने एक फ़िल्म की स्क्रिप्ट भी लिखी जिसका अभी कार्यान्वन होना बाक़ी है। इसके बाद यह कहानी 'लोकमत' अखबार के दिवाली विशेषांक में भी छपी। अभी हाल में दिनों में जिस प्रकार राजनीति तथा मीडिया द्वारा हिन्दू मुस्लिम खाई को चौड़ा करने का प्रयास किया गया उसके विपरीत तबस्सुम अपनी रचनाओं से इस खाई को भरने का प्रयास कर रही थीं उनकी लघुकथा 'देवी अम्मी की जय' हिन्दू मुस्लिम रिश्ते में मिठास घोलती एक प्यारी सी लघुकथा कही जा सकती है। तबस्सुम जहां ने समाज के तकरीबन हरेक विषय पर अपनी लेखनी चलाई है। स्त्री-जीवन की विसंगतियों पर केंद्रित लघुकथा 'मुक्ति' दांपत्य जीवन पर कटाक्ष करती लघुकथा 'लक़ीर बनाम लकीर' विशेष उल्लेखनीय हैं। इसके अलावा नौकरी के लिए मौजूदा साक्षत्कार प्रक्रिया की खामियों को उजागर करती इनकी छोटी कहानी 'भूसे की सुई' विदेशी पत्रिका का हिस्सा बन चुकी है। धूम्रपान और उससे होने वाली हानि व लत से जुड़ी विडंबनाओं का सजीव चित्रण 'कैंसर' कहानी में दृष्टिगत होता है जिसमें मित्र की तंबाकू से मौत होने पर भी एक व्यक्ति गुटखा खाना नहीं छोड़ता। आधुनिक समय में जीवन मूल्यों का ह्रास तेज़ी से हो रहा है परिवार में प्रेम आपसी रिश्तों की गर्माहट कम होती जा रही है। ऐसी स्थिति में संतान अपने माता-पिता को छोड़ने में भी नहीं हिचकिचात। उनकी मृत्यु होने पर उनका श्राद्ध करके अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेती हैं। इस विषय पर तबस्सुम जहां की लघुकथा 'फ़र्ज़' बहुत उम्दा बन पड़ी है। बालमन की कोमल भावनाओ तथा उनके मनोविज्ञान का सुंदर चित्रण उनकी बाल कहानी 'कनेर के फूल' तथा 'पानी और आसमान' में देखा जा सकता है। दोनों ही कहानियों में मात्र दो पात्र नौ वर्षीय सुमन और ग्यारह वर्षीय कुसुम दो बहनें हैं जिनकी बालजनित संवाद तथा चेष्टाओं का उल्लेख कहानी में देखने को मिलता है। 'मौत बेआवाज़ आती है' के बाद इनकी दूसरी बड़ी कहानी 'अपने-अपने दायरे' दूसरी सबसे प्रसिद्ध कहानी रही। जो सबसे पहले दैनिक भास्कर अखबार में छपने के बाद ब्रिटेन, कनाडा तथा अमेरिका की बड़ी पत्र-पत्रिकाओं में छप चुकी है। अपने-अपने दायरे कहानी एक अवकाश प्राप्त अध्यापिका पर केंद्रित है जो लॉकडाउन के समय मे अपनी स्कूल के दिनों की एक छात्रा की आर्थिक सहायता करने बैंक पहुंचती हैं। बैंक के बाहर सोशल डिस्टेंस के कारण बीस गोले बने हुए हैं। हर गोला उन्हें उनकी जीवन स्मृतियों में ले जाता है। अंत मे जीवन के पड़ाव के समान हर गोला पार करके अंततः वह अपनी स्टूडेंट की मदद करने में सफल होती हैं। तबस्सुम जहां को लेखन के दौरान अनेक चुनौतियों का सामना करना पढ़ा। मुस्लिम समाज की विसंगतियों पर लिखी उनकी लघुकथा 'औलाद का सुख' तथा 'वह जन्नत जाएगी' ने अनेक मुस्लिम लोगो को उनके ख़िलाफ़ कर दिया। उनसे कहा गया कि इन्हें इस विपरीत परिस्थितियों में मुस्लिम समाज के ख़िलाफ़ नहीं लिखना चाहिए। दूसरी ओर अकादमिक जगत की पोल खोलती उनकी कहानी भूख बनाम साहित्य को पढ़कर अकादमिक जगत से जुड़े लोगों की नाराजगी प्रकट होने लगी। वहीं साम्रदायिक सौहार्द से जुड़ी उनकी अभी हाल की लघुकथा 'धर्म की रक्षा' पढकर सोशल मीडिया पर कुछ लोग ने आपत्ति की कि उन्होंने हिन्दू धर्म को मुद्दा क्यों बनाया किसी मुस्लिम को क्यों नहीं। इन सब विरोधों के बावजूद तबस्सुम जहां अनवरत रचना कर्म कर रही हैं। आज जिस प्रकार समाज मे हिन्दू मुस्लिम खाई चौडा हो रही है इसमें एक स्त्री होना वो भी मुस्लिम लेखिका होना तबस्सुम स्वयं मे एक चुनौती मानती है। तबस्सुम जहां की कहानियां पर यदि समीक्षा तथा आलोचनात्मक दृष्टि से बात करें तो हम पाते हैं कि उनकी छोटी बड़ी सभी कहानियाँ बात करती हैं वर्तमान परिदृश्य की, गरीबी की, असंतुलन की, असमानता की, धर्म के नाम पर बढ़ती कट्टरता की। कोरोना जैसी भयंकर महामारी से जिस तरह से पूरे विश्व में तांडव मचा वह हम सबने देखा तो रचनाकार इससे भला अछूते कैसे रहते वो भी तबस्सुम जहां जैसे सहृदय रचनाकार जिनकी कलम से हमेशा ही गरीबों का और मजलूमों का दर्द उकेरा गया। जहां उनकी "कोरोना वायरस " कहानी समाज में बढ़ती संवेदनहीनता की ओर इशारा करती है वहीं लोगो की उम्मीद को बचाए रखने का काम करती है उनकी कहानी "क्यों निराश हुआ जाए।" इसी तरह से उनकी कहानी "अपने अपने दायरे" के जरिए हमें रिटायरमेंट के वाद की सामाजिक अस्वीकृति और पारिवारिक उपेक्षा से जूझते दंपत्ति और कोरोना के लिए बने दायरों के माध्यम से अपनी हर उम्र के दायरों की स्मृतियों में घिरे दंपत्ति का मार्मिक चित्रण है। तबस्सुम लघुकथाएं तथा छोटी कहानियां लिखती हैं और संक्षिप्त्तता में बड़ी बात कहना उनका हुनर है। कम शब्दों तथा छोटे संवाद उनकी कहानियों की जान है जो उनकी रचनाओं को एक ग़ज़ब की कसावट देते हैं। उनकी रचनाओं में कहीं कोई बिखराव नज़र नहीं आता और इनका नेरेशन कमाल का होता है। उनकी कहानियां चित्रात्मक शैली में रचित होती हैं जिन्हें पढ़ कर लगता है कि सभी दृश्य आँखों के सामने सजीव हो उठते हों।ग्रामीण परिवेश की उनकी रचनाएं जैसे ईश्वर के दूत, देवी माँ, देवी अम्मी की जय, शहर वापसी, बस थोड़ी दूर और, बस दो दिन और तथा मौत बेआवाज़ आती है में उनकी बोलचाल की ग्रामीण क्षेत्रीय बोली मन को मोह लेती हैं। वहीं शहरी पृष्ठभूमि पर रचित कहानी अपने-अपने दायरे, मुक्ति, फ़र्ज़, अपने-अपने भगवान, भूख बनाम साहित्य, शहरी वातवरण को जीवित करती है। इनकी प्रत्येक कहानी की भाषा पात्रानुकूल है। व्यर्थ के भारी भरकम शब्दों से लेखिका ने गुरेज़ किया है। कहानी के शिल्प की कसौटी पर उनकी कहानियां एकदम खरी उतरती हैं। तबस्सुम जी स्वयं भी एक बहुत उम्दा समीक्षक हैं और उनकी फिल्मों की समीक्षाएं अकसर राष्ट्रीय अखबारों में प्रकाशित होती रहती हैं। साथ ही वे बॉलिवुड इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल जैसे सार्थक मंच की पब्लिक प्रवक्ता भी हैं। इसके अलावा यह अंतर्राष्ट्रीय हिंदी मासिक पत्रिका 'साहित्य मेघ' की सह संपादक के पद पर हैं और निरंतर साहित्य सेवा कर रही हैं। तबस्सुम जहां का हिंदी कहानी में महत्वपूर्ण योगदान को देखते हुए वरिष्ठ आलोचक प्रसिद्ध नाटककार कहानीकार प्रताप सहगल ने तबस्सुम जहां को "एक उम्दा कथाकार माना है।" इतना ही नहीं प्रसिद्ध आलोचक समीक्षक राजेन्द्र श्रीवास्तव ने हिंदी कथा साहित्य पर लिखी व सामयिक प्रकाशन से छपी पुस्तक में तबस्सुम जहां को नए उभरते कथाकारों में शामिल किया है वे अपनी पुस्तक " सृजन का उत्सव- हिंदी कहानी का सरल और संक्षिप्त इतिहास" में लिखते हैं कि "अपने समय की विसंगतियों को डॉ तबस्सुम जहां अपनी छोटी छोटी कहानियों के माध्यम से बहुत प्रभावी रूप से व्यक्त कर रही हैं। लेखिका संवेदना के स्पर्श से साधारण अनुभूतियों को भी असाधारण बना देती हैं। उनकी रचनाएं दुनिया को बेहतर बनाने का प्रतिफल नज़र आती हैं। देवी अम्मी की जय, अपने अपने भगवान, बस थोड़ी दूर और जैसी रचनाएं लेखिका के मानवतावादी चिंतन को अभिव्यक्त करती हैं।" अतः इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि तबस्सुम जहां हिंदी साहित्य जगत में एक उभरता हुआ हस्ताक्षर बनने की ओर अग्रस हैं। इनकी कहानियां न केवल देश भर की पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित होती हैं वरन विदेशों की पत्रिकाओं में भी उनकी कहानियां निरंतर प्रकाशित होती रहती हैं। Spotify जैसे ऑनलाईन रेडियो के माध्यम से भी उनकी कहानियों का पाठ हुआ है। तबस्सुम जहां की कहानियां की शिल्प पर बात करें रचनाधर्मिता का मूल तत्त्व है संवेदना और उससे आगे बढकर बाकी सभी शिल्पगत तत्त्व आते हैं लेकिन अगर कोइ रचना शिल्प की कसौटी पर भी खरी हो तो उसका गठाव पाठकों को सहज ही अपनी ओर आकर्षित करता है। डॉ। तबस्सुम चूंकि खुद बहुत अच्छी विश्लेषक और समीक्षक भी हैं इसलिए वे अपनी रचनाधर्मिता के साथ भी पूरा न्याय कर पाती हैं लेकिन साथ ही साथ उन्होंने कहानियों की रोचकता को भी बरकरार रखा है क्योंकि किसी भी पाठक के लिए रचना का रोचक होना बहुत जरुरी है और वह कहीं भी बोझिल नहीं होनी चहिए। तबस्सुम जी की कहानियां इन सभी मापदंडों पर पूर्णरूपेण खरी उतरती हैं और कहीं भी निराश नहीं करती हैं। तबस्सुम जहां के समस्त रचनाकर्म पर दृष्टिपात कर ये कहा जा सकता है कि वे असीमित संभावनाओं वाली रचनाकार हैं और आने वाले समय में हमें उनकी और और कहानियों का शिद्दत से इंतज़ार रहेगा। इनके लेखन की एक ख़ास बात और है कि वे क्वांटिटी की बनिस्बत क्वालिटी में यकीन रखती हैं और निरन्तर लेखन की किसी तरह की दौड़ में शामिल नहीं हैं और भीड़ से अलग रहना ही उनके व्यक्तित्व की भी विशिष्टता है। उनकी रचनाओं में क्षेत्रीयता और आंचलिकता की भीनी भीनी महक भी मिलती है जो उन्हें औरों से इतर खड़ा करती है। अतः इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि तबस्सुम जहां हिंदी साहित्य में एक उभरता हुआ नाम हैं। इनकी रचनाधर्मिता आगे आने वाले समय में हिंदी साहित्य में अभूतपूर्व योगदान देगी ऐसा मेरा विश्वास है। मुस्लिम महिला कथाकार होते हुए भी यह अपने समाज की विद्रूपताओं का बेबाक चित्रण करती हैं। तबस्सुम जहां ने एक बातचीत के दौरान मुझसे कहा था कि "सुहासिनी जी, मैं साहित्य को हृदय के गहराई की उदभावना का मूर्त रूप मानती हूं। लेकिन इसे व्यक्त करने में कई उलझनों से गुजरना पड़ता है।एक स्त्री होने के नाते ख़ासकर मुस्लिम स्त्री होने के कारण कई चीज़ों को व्यक्त करना मुश्किल होता है। यह सामाजिक धार्मिक और आर्थिक आज़ादी न होने के कारण होता है। लेकिन हालात से लड़ना ही मेरा ध्येय है।" उनके इन विचारों से सृजनात्मक विसंगतियों का समझा जा सकता है। वह प्रगतिशील रही हैं यह उनके पारिवारिक संस्कारों की देन है। एक बार जब वह घरलू जरूरत के लिए पानी लेने मस्जिद में गई तो मौलाना ने यह कह कर मना कर दिया कि स्त्री का प्रवेश यहां नही हो सकता। अगली बार मौलाना जब चंदा मांगने उनके घर पहुंचे तब तबस्सुम ने चंदा देने से साफ मना कर दिया। इतनी छोटी उम्र में धर्म को लेकर ऐसा फ़ैसला प्रगतिशील होने के कारण ही वह ले सकी। युवा कथाकार के रूप में उनकी रचनात्मकता में जो धार दिखाई देती है वह अपने आसपास की विसंगतियों को हृदय से महसूस करने के कारण ही है।समाज से राजनीति तक और राजनीति से स्त्री जीवन तक जो विद्रूपताएं दिखाई देती है तबस्सुम जहां उसकी प्रबल विरोधी नजर आती हैं । इनकी कहानी का नायक जब संवाद बोलता है तो उसके संवाद में एक व्यंग्य मिश्रित ध्वनि स्पष्ट होती है यह उनके लेखन में अनुभूतियों के कारण ही है। स्त्री स्वयं में विसंगतियों से जूझती रहती है लेकिन इसके साथ उसका जीवन भी एक सृजनात्मक भावबोध में लिपटा रहता है अपने इसी क्षमता का उपयोग जो स्त्री कर लेती है वह स्वयं को साबित कर पाती है। तस्लीमा नसरीन से लेकर शाजिया तबस्सुम तक और शाजिया तबस्सुम से तबस्सुम जहां तक के कथा सृजन में सृजनात्मकता को पहचान कर पहचान बनाती स्त्री के भावगत उद्बोध का समझा जा सकता है। इतना अवश्य है कि अपने पूर्ववर्ती मुस्लिम साहित्यकारों के समान निर्दयता से यह विसंगतियों पर चोट नही करती हैं।बावजूद इसके इनके लेखन की धार हमारे भावनाओं को उद्देलित करने में सक्षम सिद्ध होती है। ---------------------------------------------------------
जीवन परिचय https://draft.blogger.com/blog/post/edit/7931032623331337117/7228240272942248882#:~:text=https%3A//alpst%2Dpolitics.blogspot.com/2022/07/2022.html डॉ अल्पना सुहासिनी युवा आलोचक एवं समीक्षक हैं। देश विदेश की पत्र पत्रिकाओं में उनके लेख तथा ग़ज़ले निरंतर छपती रहती हैं। इनका ग़ज़ल संग्रह "तेरे मेरे लब की बात" काफ़ी चर्चित रहा है। साहित्य साधना के अलावा यह साहित्यिक व सांस्कृतिक कार्यक्रमों व गोष्ठियों का सफल संचालन करती हैं। इसके अलावा बॉलीवुड एक्टर, उम्दा एंकर तथा एक मशहूर ग़ज़लकार भी हैं। 2011alpana@gmail.com