रविवार, 28 सितंबर 2014

अब सारी तहज़ीबें चुप हैं/ग़ज़ल/डॉ.रंजन ज़ैदी



अब सारी तहज़ीबें चुप हैं/ग़ज़ल/डॉ.रंजन ज़ैदी *

किसके खौफ से सहमी-सहमी, किसकी याद में खोई है.

भीगे   वर्क   से   लिपटी   तितली जाने कब से  सोई  है.


क़तरा-क़तरा   गलते-गलते   शबनम    आंसू  बन बैठी, 
 
रात की शोरिश आग  जलाये   लोरी  सुनकर   सोई   है.


माँ सिरहाने  बैठी  कब से  आँचल  में  इक  चाँद  लिए, 
 
हर  दस्तक  पर  वह  सुबकी  हैहर आहट पर रोई है.


बाढ़  में  सब  कुछ  ऐसे  डूबाजैसे  नूह   का   तूफ़ां हो,

चश्मे-ज़दन में बर्फ पिघलकर, बादल   से   टकराई   है.


सारा   जंगल    बहते-बहते    मेरी  नाव  में      बैठा, 
 सारी   तहज़ीबें   अब  चुप हैं,   कैसी  आफ़त  आई   है.


कोई      तितली,   फूल जूड़ा, खुशबू में भी बेकैफी,

सूखे पत्तों    की    कब्रों   पर, बस्ती कितना   रोई   है.
                                           -----------
कॉपीराइट : ग़ज़ल/डॉ.रंजन ज़ैदी *

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

alpst-politics.blogspot.com, community में उर्दू-साहित्य का ब्लॉग है. लगातार काम कर रहा है. Dayaare URDU.blogspot.com MAJLIS community में उर्दू की स्तरीय व शोधपरक रचनाएँ आमंत्रित हैं. आप अपने सुझाव, सूचना, शिकायत या आलेख zaidi.ranjan20@gmail.com पर भेज सकते हैं.