रविवार, 28 सितंबर 2014

आओ भुला दें अपना माज़ी/ज़ैदी ज़ुहैर अहमद*



आओ भुला दें अपना माज़ी/ज़ैदी ज़ुहैर अहमद*

आओ   भुला  दें  अपना  माज़ी,  कब   तक   आँख  चुराएंगे। 

हाथ  में  लेकर  अम्न  का  परचम, गलियों  तक  फहराएंगे।



दारोरसन  के  क़िस्से  सारे  बंद   करो  ताबूतों में,

खूं  में  लिपटे  अफ़सानों के पन्ने खुद गल  जाएंगे।



​हाथों में  कश्कोल  न  होंगे, दाग़ न कोई फ़क़ीरी का,

दूर   किसी   सय्यारे   का  दवाज़ा अब खुलवाएंगे।



​नक़ले-मकानी की  सूरत  में घर था वो भी नहीं रहा

कैसे  हम  गुमनाम  हवा  से  भड़की आग बुझाएंगे।



कच्चे     धागे     रोक     रहे   थे,     रोक   रहे   थे   चन्दन-बन,

मौसम   खुद   जब   रोक     पाया,   हम  कैसे   रुक  जाएंगे। 



चाँद सफ़र में जुगनू के संग, ख्वाबीदह कश्ती में हम,​

​वहमो-गुमाँ  से  दूर कहीं कुछ काम नया कर जाएंगे। 



सूरज    को     पिघलाकर  काली   रात  बना  सकता है  तू,                  ख़ालिक़    तेरी   ज़ात है  ऐसी,  हम   किसको  समझाएंगे।
Copyright--ज़ैदी ज़ुहैर अहमद*

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