मंगलवार, 2 सितंबर 2014

पिघले हुए बुतों के भी अपने नसीब हैं/ज़ैदी ज़ुहैर अहमद*

'चिड़ियों ने अपने-अपने ठिकाने बदल दिए, 
बुलबुल  की  है  खबर  के  शिकारी  क़रीब हैं. 

शेर पढ़कर 'डॉ.एहसान रज़ा' ने पूरी ग़ज़ल पढ़ने का इज़हार किया था. 'डॉ.एहसान रज़ा' मेरे अज़ीज़ दोस्त हैं, सऊदी अरब में रहते हैं और शाइर भी हैं . उनकी फ़रमाइश पर ग़ज़ल के चंद अशआर पेशे-ख़िदमत है. पसंद आऐं  तो दाद चाहूँगा। इसे साहिबे-अदब मेरी वेबसाईट पर भी देख सकते हैं.
 'http://dayar-e-urdu.com' पर भी. 
अपने ही हम रकीब हैं, अपने हबीब हैं. ज़ैदी ज़ुहैर अहमद*
                                                          
Dr. Ranjan Zaidi

अपने ही हम रकीब हैं,  अपने  हबीब हैं 
आईना खुद ही बोल दे किसके करीब हैं. 
  
चिड़ियों ने अपने-अपने ठिकाने बदल दिए,
बुलबुल की है खबर  के  शिकारी  क़रीब हैं. 
 

  
कल रात आग क्या लगी, दीवार ढह  गई,
अच्छे दिनों के ज़ख्म भी कितने अजीब हैं.
 


जीते भी तो तज़लील से मरना था मुक़द्दर,
पिघले  हुए  बुतों  के  भी  अपने  नसीब  हैं.


कितनी मुहीब रात है कान्धों पे मर्सिये,
ज़िंदा हैं खूं  से तर ये जनाज़े अजीब  हैं.
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Copyright :  ज़ैदी ज़ुहैर अहमद*

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