उर्दू उपन्यास के सौ साल/रंजन जैदी
उर्दू उपन्यास ने
जबसे अपनी उम्र
के १०० साल
पूरे किये हैं,
साहित्यकारों के बीचचर्चों के बाज़ार
गर्म हैं. मजनूँ
गोरखपुरी के उपन्यासों
को अब स्पष्ट
रूप से कहा
जा सकता है
कि उनके समस्त
उर्दू उपन्यास हार्डी
के उपन्यासों का
चरबा है. लेकिन
मिर्ज़ा हादी रुसवा के
उपन्यास उमराव जान अदा पर
यह आरोप नहीं
लगाया जा सकता,
बल्कि कहा जा
सकता है कि
उनका उपन्यास उन्नीसवीं
शताब्दी के उत्तरार्ध
के सामाजिक जीवन
के यथार्थ की
ऐसी मनोवैज्ञानिक प्रस्तुति
रही है जिसने
उपन्यास को एक
मुकम्मल और पहले
उपन्यास की हैसियत
प्रदान कर दी.
कुर्रतुल-एन हैदर |
यह अभिव्यक्ति का
ऐसा माध्यम बना
जिसने सर सय्यद
के तत्कालीन सामाजिक,
सांस्कृतिक और राजनीतिक
आन्दोलन को एक
भाषा और बोलने
की शक्ति प्रदान
की. इस आन्दोलन
की शृंखला में
रतन नाथ सरशार,
ऐतिहासिक उपन्यास लिखने वाले
उपन्यासकार अब्दुल हलीम शरर,
और मुंशी प्रेमचंद अग्रिणी
लेखकों में गिने
जाने लगे.
१९४८
में फिक्र तौन्सवीं का छठा दरिया
भारत-पाक विभाजन
के दौरान लिखी
गयी उनकी एक
ऐसी थी
जिसमें रोज़ की
सम्प्रदियिक हिंसा, गमन और
हिन्दू-मुस्लिम दंगों का
रोजनामचा दर्ज किया
गया था. इसे
मैंने पहली बार
हिंदी में अनूदित
कर हिंदी मासिक
पत्रिका गंगा (संपादक:कमलेश्वर)
में दिया जिसे
धारावाहिक रूप में
प्रकाशित किया गया.
डायरी
चांदनी बेगम |
अब्दुल्ला हुसैन का उपन्यास
उदास नस्लें हालाँकि १९६२
में प्रकाश में
आया था लेकिन
उसमें अंग्रेजी साम्राज्य
के षड्यंत्रों, अंग्रेजों
के विरुद्ध आक्रोश,
भारतीय आज़ादी के आन्दोलन
की पृष्ठभूमि और
अनेक ऐसे आयामों
का चित्रण प्रस्तुत
किया गया है
कि वह एक
क्लासिक की हैसियत
हासिल करने में
कामियाब होता नज़र
आता है.
१९६९
में हयातुल्लाह अंसारी
का एक वृहद
उपन्यास लहू के फूल
का प्रकाशन हुआ जो
आज़ादी से पूर्व
के हिन्दुतान में
रह रहे दलितों
की समस्याओं पर
आधारित था.