रविवार, 21 जनवरी 2018

Nazm/ / مردوں کا فیصلہ by DR. ZAIDI ZUHAIR AHMAD,


مردوں کا فیصلہ  
 / DR. ZAIDI ZUHAIR AHMAD,


.جب فائرنگ ہوی  تب اندھیرا تھا'
 گولیوں کی رکابوں میں
 تعصّب کےنوحہ خانوں میں 
دھدھکتی آگ کے زندانوں میں
 پرندوں کی چیخیں آسمانوں میں
 سوچو! تم کیا کر سکتے ہو?

تیمور کے آنے پر بھی
 ایسا ہوا تھا.
نادرشاہ ابدالی کے آنے پر بھی 
بہت سا خون بہا تھا
  تواریخ کے صحیفے ابھی بھی خونآلود  ہیں 

دیللی تو لٹتی رہی  ہے
یاد کرو غدر کی دیللی
باغیوں کی ننگی تلواریں 
آزادی کے نام نحاد  نعروں  کے ساتھ  
لٹتے ہوے دیللی کو
باغی تو اپنے تھے وہ بھی    
 انگریزوں کے شکار ہوے 

تم  کسی اننآ کو نہیں جانتے
خوفزدہ اننایں بچچوں کو لیکر
کووں میں کودتی رہی ہیں
دیللی لٹتی رہی ہے   
دیللی سے لیکر گجرات تک 
دردناک حادثے ہوتے رہے ہیں.
اندھیروں کے جرم  کبھی نظر نہیں آتے
قانون اندھا ہوتا ہے.
باپ کے سامنے بیٹی کی عصمتدری 
بیٹی کے سامنے باپ کا قتل
تم گواہی دوگے
شاید نہیں
     
یہ حیوانیت ختم نہیں ہوگی 
جنگل اور تہذیب کی شکلیں بدلتی رہتی ہیں
خدا آلملغیب ہے جانتا ہے 
 کبھی کچھ نہیں کہیگا
ظالم کو تاجدار بنا دیگا مظلوم کودعا کا طلبگار 
اقتدار کی جنگ کے فلسفے ایسے ہی ہوتے ہیں    
- / DR. ZAIDI ZUHAIR AHMAD (ممبئی) 
                                                                                      चलो काँधे पे रखकर हाथ 

दुनिया देखलें फिर से.
चलो हम ज़िन्दगी की नाव में
कुछ क़हक़हे भर लें.  
चलो कुछ ख्वाब ही बुन लें,
चलो फिर जुगनुओं से मुट्ठियाँ भर लें. 
चलो फिर हौसला कर प्यार की
कुछ  चिट्ठियां  लिख लें.
 जाने कल ज़मीं का कौन सा टुकड़ा
हिले और ख्वाब बन जाये।
रंजन ज़ैदी



शनिवार, 30 दिसंबर 2017

देश का युवा क्या राजनीतिक बदलाव ला सकता है.../ रंजन ज़ैदी

राहुल गाँधी कांग्रेस के अध्यक्ष बन चुके हैं, बहन प्रियंका उनकी अघोषित सलाहकार. संभव है, 2019 का वह चुनाव भी लड़ें। राहुल अब घोषित हिन्दू बन चुके हैं यानि, वह देश के प्रधान मंत्री बनने की कवायद में अब अगली क़तार में आ चुके हैं. यदि क़िस्मत ज़ोर मार दे तो वाड्रा और उनकी बेटी भी राजनीति में आ जाएगी.

सवाल उठता है कि क्या कांग्रेस अब एक कंपनी बनकर रह गई है? क्या अब राहुल के इर्द-गिर्द जो चेहरे नज़र आने लगे हैं, वे कांग्रेस को आक्सीजन दे पाएंगे ? कांग्रेस तो एक मने में बीमार हो चुकी है. गुजरात के युवाओं ने उसे ज़िंदा रखने के लिए वेंटिलेटर ज़रूर उपलब्ध करा दिया था. इसके बावजूद कांग्रेस सत्ता में नहीं आ सकी. वास्तविकता यह है कि कांग्रेस को ऐसे बूढ़े राजनीतिक पंडितों के साये चारों  ओर से घेरे हुए हैं जो बाहर की ताज़ी हवा को अंदर नहीं आने देते और न ही भविष्य में आने देंगे, तब कांग्रेस कैसे ज़िंदा रहेगी?

यह सच है कि इस देश का युवा देश में बड़ा राजनीतिक व सामाजिक बदलाव ला  सकता है लेकिन वह क्रांति नहीं ला सकता क्योंकि बूढी सियासत उनपर भरोसा नहीं करती है. 

जयप्रकाश नारायण ने रास्ता सुझाया था तो भ्रष्ट नेताओं की जमात आगे आ गयी थी और देश का रास्ता राहुल गाँधी का कॉकस भी अभी से आमजन को उन तक नहीं पहुँचने दे रहा है. इंदिरा गाँधी को भी इसी तरह के कॉकस ने घेरे में ले रखा था, इमरजेंसी लगी, वह दिवंगत भी हुईं, राजीव गाँधी भी शहीद हो गए. लगा, नेहरू परिवार किसी अंतर्राष्ट्रीय षड़यंत्र का शिकार होता जा रहा है. तो, जो कांग्रेस की देही  इलाक़ों में आम जनता जी ज़मीन में जड़ें थीं, वे हर आने वाले दिन में सूखती जा रही थीं. सोनिया गाँधी ने अपनी पूरी ताक़त के साथ  संघर्ष किया, कांग्रेस को बचाये भी रखा लेकिन कांग्रेस के भीतर तो उसे ख़त्म कर देने की  निरंतर साज़िशें जारी थीं. एक के बाद एक झूठे सच्चे स्कैम सामने आते जा रहे थे.
गुमरही का शिकार हो गया. नतीजे आपके सामने हैं.

एरोस्ट्रोक्रेट राहुल गाँधी ने राजनीति में आकर देश को ऐसी नज़र से देखा जैसी नज़र से शहज़ादे (मेरी एक पत्रकार दोस्त उसे अब भी शहज़ादा ही कहती है) देखते हैं, रईस बाप के बेटे देखते हैं. वह किसी ग़रीब बूढी स्त्री को गले नहीं लगाते थे बल्कि जानने की कोशिश करते थे कि ग़रीब लोग होते कैसे हैं? जो झोपडी का मॉडल उनके ड्राइंगरूम में डेकोरेशनपीस बना था, वह असलियत में कैसा लगता है. उनके लिए राजनीति कोई माने नहीं रखती है, रखती होती तो वह बीजेपी की आँधी को अपने प्रदेशों की सरहदों पर ही रोक लेते. उनके वफादार स्वयं सेवक मोदी के हर फ्लॉप इवेंट का विरोधकर सड़कों पर फैल जाते, सरकार से ब्लैक मनी  के एक एक पैसे का हिसाब लेते, हिन्दू-मुस्लिम की नौटंकियों वाली सियासत को समझ जाते कि मोदी योजनाबद्ध होकर हर दिन देश की जनता को उलझाए रखना चाहते हैं, सत्याग्रह करते कि ईवीएम के माध्यम से चुनाव नहीं होंगे.  लेकिन देश के 19 राज्य देखते-देखते बीजेपी की झोली में चले गए और कांग्रेस कुछ भी नहीं कर सकी.

आश्चर्य यह है, राहुल गाँधी ने तो देश को यह भी नहीं बताया कि वह सत्ता में आकर करेंगे क्या? बीजेपी से टक्कर लेंने की उनकी क्या योजनाएं हैं? कैसे देश के लोकतंत्र की वह हफ़ाज़त करेंगे? क्या मंदिरों में साष्टांग कर वह देश के 20  करोड़ मुसलमानो के ज़ख़्मी दिलों को जीत सकेंगे? क्या दलितों, शोषितों, पिछड़ों और पीड़ित आदिवासियों को अपने शासन में नई  जन्नतें दे सकेंगे? क्या महिलाओं को सुरक्षा और उन्हें उनके विकास के मौलिक व क़ानूनी अधिकार दे सकेंगे? शायद नहीं! उन्होंने ऐसे सपने शायद नहीं देखे होंगे क्योंकि वह बहुत जल्द थककर कहीं भी सो जाते हैं. ऐसे माहौल में भाई नरेंद्र मोदी ज़रूर सपनों के सौदागर बनकर  19 राज्यों पर अपना झंडा गाड़ चुके हैं.

एक बात महत्वपूर्ण यह है कि कांग्रेस की विरासत वस्तुतः भय की सायिकी से ग्रस्त है. प्रिंयंका वाड्रा  भी इसी सायिकी का शिकार है. राहुल के अध्यक्ष बनने और सोनिया गाँधी के बीमार रहने अब प्रियंका के राजनीति  में आने की सम्भावना कुछ बढ़ गई है और उसके साथ-साथ वाड्रा और उसकी बेटी भी राजनीति  में क़िस्मत आज़माने की तैयारी करने लगे हैं.  लेकिन कांग्रेस फिरसे अपने पैरों पर खडी हो पायेगी, मुझे इसमें उम्मीद कम ही नज़र आती है.@ranjanzaidi786,https://ranjanzaidi786@yahoo.com,Mob; +91 9350 934 635      

गुरुवार, 28 दिसंबर 2017

जन्म-दिवस पर विशेष:ग़ालिब का असली नाम असदुल्लाह खां था/.. डॉ.रंजन ज़ैदी

मिर्ज़ा ग़ालिब का असली नाम असदुल्लाह खां था. उनके तूरानी वंशज शाही परिवार सिल्जोती तुर्क नस्ल से थे जिनमें बादशाह अफरासियाब और पुशुंग के किस्से, प्राचीन ईरान की लोककथाओं और फारसी कहानियों में बेहद प्रचलित रहे हैं. एक कते में ग़ालिब स्वीकारते भी हैं-

के-साकी चो मन पुश्नगी  व्  अफ्रासियाबीम,
वाली के अस्ले-गौहरम अज दूदए-जिम अस्त.

जब बादशाह हुमायूँ बाकायदा दिल्ली के तख़्त पर बैठा तो उसने अपने हितैषियों में तूरानी तुर्कों कों भी सम्मानित किया. इन्हीं में ग़ालिब के पूर्वज भी एक थे जो बाद में बादशाह से अनुमति लेकर आगरा में आकर बस गए. ग़ालिब इसी वंश से सम्बंधित रहे हैं. 
1796 में आगरा (उ.प्र.) निवासी अब्दुल्लाह बेग के घर जब उनके बेटे ने जन्म लिया, तब वह रियासत अलवर के महाराजा बख्तावर सिंह की सेना में नौकरी  करते थे. जिस समय असदुल्लाह 5 वर्ष के हुए, उनके पिता एक सैनिक मुहिम के दौरान दुश्मन की गोली से मारे गए. इस स्थिति में उनके लालन-पालन की जिमेदारी उनके चचा मिर्ज़ा नसरुल्लाह बेग पर आ गयी, किन्तु 4 वर्ष बाद वह भी अल्लाह कों प्यारे हो गए. तालीम के नज़रिये से मिर्ज़ा को बचपन में ही फ़ारसी मूल के विद्वान् अब्दुल्समद कों फारसी पढ़ाने के लिए नियुक्त किया गया. 

अब्दुल्समद ने ग़ालिब कों फारसी में इतना पारंगत कर दिया था कि वह फारसी में शाएरी करने लगे.
ऐसा देखकर विद्वान् आश्चर्य-चकित रह गए. (आज भी कहा जाता है कि ग़ालिब मूलतः फारसी के आला दर्जे के शायर थे लेकिन उनकी फ़ारसी शाइरी पर (उर्दू के मुक़ाबले) गंभीरता से शोध नहीं किया गया. हालांकि ईरान में ग़ालिब की फ़ारसी शाइरी पर बहुत काम किया गया है. अब तो उर्दू अदब में ग़ालिब की शाइरी और शख्सियत पर बहुत काम किया जा रहा है.

ग़ालिब खुद कों फारसी का शाएर मानते थे और फारसी के बुलंद शायरों में वह अमीर खुसरो और फैजी की ही प्रशंसा करते थे. उनकी फारसी-विद्वता से प्रभावित होकर रामपुर रियासत के छोटे नवाब यूसुफ अली खां कों फारसी पढ़ाने के लिए ग़ालिब कों नियुक्त किया गया. कालांतर में जब नवाब यूसुफ अली खा गद्दी पर बैठे तो उन्होंने सौ रूपये आजीवन पेंशन के बाँध दिए जो उन्हें बराबर मिलते रहे. 5./-प्रतिमाह उन्हें शाही किले से (1850-57 तक मिलते रहे. 

नसरुल्लाह बेग की संपत्ति से जो आय अर्जित होती थी उसमें तीन लोगों का हिस्सा लगता था, ग़ालिब के भाई मिर्ज़ा यूसुफ, उनकी मां और ग़ालिब. प्रत्येक के हिस्से में रकम (750/- रूपये सालाना) पेंशन के रूप में आती थी जो की 1857 के विद्रोह के समय तक आती रही. 1857 के विप्लव के दौरान ये पेंशन 3 वर्षों तक बंद रही, बाद में जब स्थिति अनुकूल हुई तो ये फिर शुरू हो गयी और जो 3 वर्षों का एरिअर था, वो भी वसूल हो गया. 

13 वर्ष की आयु में विवाह हो जाने के कारण उनका दिल्ली से रिश्ता जुड़ गया था और वह दिल्ली आने-जाने लगे थे. कालांतर में अंततः ग़ालिब किराये के मकानों में रहते-बसते दिल्ली स्थित मोहल्ला बल्लीमारान में उम्र के आखरी पड़ाव तक बेस रहे.  दिल्ली में ग़ालिब कों मिर्ज़ा नौशा के नाम से भी पुकारा जाता था. इसका कारण ये था कि उनकी ससुराल दिल्ली में ही थी और उनके दिल्ली निवासी ससुर नवाब इलाही बक्श, मारूफ उपनाम से उर्दू जगत में अपनी अच्छी पहचान और इज्ज़त रखते थे. यहीं रहते हुए असदुल्ला खा, मिर्ज़ा ग़ालिब बने और मिर्ज़ा ग़ालिब बनकर शोहरत की बुलंदियों कों छुआ. उनकी शोहरत और अजमत का अनुमान इस बात से भी लगाया जा सकता है कि उन्हें बादशाह बहादुरशाह ज़फर द्वारा नजमुद्दौला, दबीरुल्मुल्क, निज़ामेजंग जैसी उपाधियों से सम्मानित किया गया था. इन पुरस्कारों की उन दिनों बड़ी अहमियत हुआ करती थी.


      ग़ालिब दिल्ली की उस गंगा-जमुनी संस्कृति का प्रतीक थे जो उर्दू ज़बान की पहचान हुआ करती थी. उनके शिष्यों में मुंशी हरगोपाल तुफ्ता जैसे हिन्दू जाति से सम्बन्ध रखने वाले शाएर भी थे और मौलाना हाली, मुस्तफा खां शेफ्ता मैकश और जौहर जैसे मुसलमान भी. मैकश और जौहर के बारे में ग़ालिब ने फारसी रुबाई तक कही-
ता मैकशो-जौहर दो सुखनवर दारैम,
शान-ऐ-दीगर व् शौकते-दिगर दारैम. 

कभी उन्होंने दोनों के बीच कोई अंतर महसूस नहीं किया. वह अपने दूर-दराज़ के शागिर्दों के पत्रों का उत्तर अवश्य देते थे. इसके लिए (हालाँकि) उन्हें डाक-टिकटों को काफी तादाद में खरीदना पड़ता था, फिर भी वह इसमें संकोच नहीं करते थे. यदि कोई जवाब के लिए टिकट साथ भेज देता था तो वह नाराज़ हो जाते थे. 

उनके शागिर्दों में मीर मेहदी हुसैन मजरूह, मीर कुर्बान अली सालिक, मिर्ज़ा हातिम अली मेह्र, मिर्ज़ा जियाउद्दीन अहमद खां नय्यर, नवाब अलाउद्दीन खां इल्लाई रईस लोहारू आदि. यही ग़ालिब के शानदार स्वभाव की पहचान थी और उनके संभ्रांत होने का प्रमाण भी. वह जब भी किसी संभ्रांत व्यक्ति से मिलने जाते थे तो वह उनका तहे-दिल से स्वागत करता था. 

ग़ालिब के क़िस्सों से उनके सैकड़ों क़िस्से जुड़े हुए हैं. ऐसा ही एक मशहूर क़िस्सा दिल्ली कालेज से जुड़ा हुआ है. एक बार दिल्ली कालेज में फारसी-प्रोफ़ेसर के पद के लिए प्रशासन ने ग़ालिब को भी न्योता दिया. मिर्ज़ा ग़ालिब सज-धज कर पालकी से कालेज के फाटक तक जा पहुंचे. देर तक इंतजार करते रहे कि उन्हें रिसीव करने कोई आएगा, पर कोई नहीं आया. इससे उन्होंने खुद को काफी अपमानित-सा महसूस किया. उन्होंने देर बाद कहार से वापस लौट चलने के लिए कह दिया. इस बात की खबर जब अँगरेज़ प्रिंसिपल को लगी तो वह स्तब्ध रह गया. 

अँगरेज़ प्रिंसिपल ने ग़ालिब को सन्देश भिजवाया कि प्रशासनिक-व्यवस्था में उनका औपचारिक स्वागत संभव नहीं था. क्योंकि ग़ालिब कालेज में ब-हैसियत कैंडिडेट गए हुए थे न कि शाएर मिर्ज़ा ग़ालिब. यही उनकी खुद्दारी थी. जिसने उन्हें उम्र के आखरी दिनों में बहुत परेशान किया. कान से भी ठीक से सुनाई नहीं देता था और स्वभाव में मलंगीपन तक आ गया था.

मैं  अदम से  भी परे हूँ,  वरना गाफिल!  बारहा/ 
मेरी आहे-आत्शीं से बाले-उनका(unqa) जल गया. 

इस शेर में ग़ालिब ने उन लोगों को संबोधित किया है जो ब्रह्म-ज्ञान अर्थात खुद-शनासी को नहीं समझते, कहते हैं कि मैं मुल्के-अदम से दूर जिंदगी और मौत की हदों से दूर निकल चुका हूँ. जब मैं इन सीढियों को पार कर रहा था तो अक्सर ऐसा हुआ कि बुलंद गर्दन मेरी पस्ती से भी अधिक महसूस होती रही और मेरी सोजे-मुहब्बत ने उसकी शोहरत के पंख जला दिए थे. उनकी मायूसियों ने उन्हें इसक़दर बेजार कर दिया था कि उन्हें इसका इज़हार तक करना पड़ा.

मैं हूँ और अफसुर्दगी की आरज़ू ग़ालिब! के दिल/
देख  कर  तर्ज़े-तपाके  अहले  दुनिया जल गया.

यानी, दुनियावालों द्वारा की जाने वाली उनकी उपेक्षा और उनके प्रति की जाने वाली व्यवहारिक उदासीनता से वह इतने क्षुब्ध हैं की अपनी स्वभावगत खुशियों से ही वह विरक्त हो गए हैं. अब तो हाल ये है की उदासी ही अज़ीज़ हो गई है और वह चाहते है कि ऐसे ही उदास रहें.क्योंकि जब-जब वह खुश रहने की जुर्रत करते हैं तो दुश्मन उनकी जान लेने पर उतारू हो जाते हैं. 'सुभ: करना शाम का, लाना है जूए-शीर का।' 
कावे-कावे से तात्पर्य प्रयास और प्रयत्न है। जूए-शीर का लाना अर्थात कठिन कार्य। गालिब फरमाते हैं  कि तन्हाई और बेकसी के आलम में सख्त जान बनकर जो मुसीबत झेल रहा हूँ, समझ लो कि इस शाम-ऐ-गम का अंत उतना ही मुश्किल है जैसा कि फरहाद के लिए पहाड़ को चीर कर दूध की नहर निकालना एक कठिन कार्य था। शेर का साधारण अर्थ तो यही था। किंतु दूसरी पंक्ति में एक अर्थ और भी छुपा हुआ है। कोहकन की मौत थी, अंजाम जूए-शीर का। अर्थात जूए-शीर लाने में सफल होना कोहकन के लिए मृत्यु का संदेश साबित हुआ। इस प्रकार मैं भी इस शाम-गम को मर कर ही ख़त्म कर सकूंगा। @ranjanzaidi786

बुधवार, 11 जनवरी 2017

नये रुतों के कुछ पन्नों पर हमने लिख दी नई ग़ज़ल/डॉ. ज़ैदी ज़ुहैर अहमद


फुटकर अशआर 

वो  बाज़ारों  में  सपने  बेचकर सबको लुभाता है, 
वो जादूगर है,  जादू  फूँक  कर जादू  दिखाता  है.  
न  खाता  है न पीता है, न सोता  है, न  जगता है,  
तुम्हें कैसे बताऊँ  मैं,  सियासत  कैसे  करता  है.
डॉ. ज़ैदी ज़ुहैर अहमद


उसके अंदाज़ निराले थे सितम ढाते थे,
ज़िन्दगी देख वही आज मसीहा है मेरा.

डॉ. ज़ैदी ज़ुहैर अहमद
  
उम्रे-रफ्ता पे  भरोसा नहीं करना दिल,
सीढ़ियां चढ़के चलो चाँद के घर हो आएं.
डॉ. ज़ैदी ज़ुहैर अहमद
   
इन्तज़ारे-शबे-हिज्राँ  भी  अजब  है यारब,
इश्क़ में इतनी सजा कौन दिया करता है.
डॉ. ज़ैदी ज़ुहैर अहमद
  
तू मेरे जिस्म की ख्वाहिश में यहां तक पहुंचा,
जब  मैं  ज़िंदा थी, तो तूने मुझे जाना ही  नहीं.
डॉ. ज़ैदी ज़ुहैर अहमद


ग़ज़ल 
डॉ. ज़ैदी ज़ुहैर अहमद

आंधी  आई  तूफां  आयेलेकिन  धरती   हिली नहीं.
घर-घर एक क़यामत आयी, लाशें फिर भी उठी नहीं

मेरे घर के   हर   कोने  में,   दहकाता   वो आग नई,
लेकिन  बामो-दर  को  देखो, लकड़ी कोई जली नहीं.

नये रुतों के कुछ पन्नों पर   हमने लिख दी नई ग़ज़ल,
लेकिन कैसी  सितम-ज़रीफ़ीपढ़ने वाला कोई  नहीं,
  
हिज्रकी आगमें जलते-जलते,वस्लकी ख्वाहिश नहींरही,
रंगे-जुनूं  का  हाल पूछो, वो  भी अब तक सोई नहीं.

एक   थी चादर धूप थी आधी, साया आधा  ख्वाब  नये,
चिड़ियाँ  चहकीं फूल भी बरसे, लेकिन बेवह उठी नहीं.

मादा पंछी  झील-सतह पर, अपने अक्स में  थी मबहूत,
मौत का  साया सामने आया, कोई दुआ  तब बची नहीं.

  दरवेशकहाँ  जाता है, अब  जंगल  में  कोई  नहीं,
सबकुछ शह्र के जंगल में है, रुक जा बस जा यहीं कहीं.
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मंगलवार, 10 जनवरी 2017

प्रतिक्रिया :इरफ़ान सिद्दीकी, शख्स और शाईर....(शीघ्र हिंदी में)

रफ़ान सिद्दीकी नई उर्दू ग़ज़ल का वह प्रतिष्ठित नाम है जिसने राह से भटक जाने वाली उर्दू ग़ज़ल को न केवल उसकी मौलिक छंदात्मक काव्य-धारा से साक्षात्कार कराया बल्कि अपनी रचनात्मक प्रतिभा के द्वारा ग़ज़ल के मौलिक तत्वों से नई पहचान कराई. इरफ़ान सिद्दीकी की शाइरी की तत्काल स्वीकृति और समकालीन बड़े शाइरों में पहली पंक्ति तक पहुँच जाने के बावजूद उस दुखद छद्मवेशियों के संकुचित व्यवहार की उपेक्षा नहीं की जा सकती जिनमें नामवर आलोचकों का ज़िक्र हुआ करता है. जिन्होंने इरफ़ान के जीवन में उनपर कुछ लिखने का प्रयास नहीं किया और न ही उनके देहावसान के बाद उनकी शाइरी पर कुछ लिखने का कष्ट किया. 
      अत्यंत प्रसन्नता की बात यह है कि जो काम साहित्य के बड़े आलोचलोन से न हो सका उसे अदब के एक युवा और प्रतिभाशाली छात्र ने बड़ी शालीनता और योग्यता के साथ न केवल कर दिखाया बल्कि इरफ़ान सिद्दीकी पर कलम उठाकर उस साहित्यिक दायित्व का भी निर्वाह कर दिया जिसे प्रबुद्ध साहित्यिक आलोचकों को करना चाहिए था. मिर्ज़ा शफ़ीक़ हुसैन शफ़क़ मेरी नज़र में उस समय आये जब वह एम् ए (उर्दू) के छात्र के रूप में मेरे विभाग प्रवेश किया, और विभग की साहित्यिक गतिविधियों में भाग लेना शुरू किया. तब यह रहस्योद्घाटन हुआ कि मिर्ज़ा शफ़ीक़ हुसैन शफ़क़ न केवल इरफ़ान सिद्दीकी की शाइरी के परमभक्त हैं बल्कि एक श्रोता की तरह स्थाई रूप से वह उनसे उनकी शाइरी साक्षात् सुनते भी रहते हैं और उनकी शाइरी की खूबियों के साथ उसमें से साहितियिक सौंदर्यता के प्रतीक शब्दों के माणिक-मोती चुनते रहते हैं. 
      इरफ़ान सिद्दीकी की शाइरी में उनकी रूचि देखकर मैंने उन्हें मशविरा दिया कि वह एम् ए के संक्षिप्त शोध प्रबंध के लिए इरफ़ान सिद्दीकी का चयन करें. मिर्ज़ा शफ़ीक़ ने सहर्ष मेरे सुझाव को मानते हुए पूरे परिश्रम व पूरी लगनशीलता के साथ इरफ़ान सिद्दीकी के 'व्यक्तित्व और कला' पर पांच अध्याय में विस्तृत एक ऐसा शोध-प्रबंध तैयार किया जिसे निर्विवाद रूप से इरफ़ान सिद्दीकी कीअविस्मरणीय पहचान के रास्ते का पहला चरण माना जायेगा

     मिर्ज़ा शफ़ीक़ अभी युवा हैं लेकिन उन्होंने इरफ़ान सिद्दीकी पर जो कुछ लिखा हैं, वह न केवल उर्दू की काव्यात्मक आलोचना के लिए उपयोगी है बल्कि इरफ़ान के सुधी पाठकों के लिए वरदान है. मिर्ज़ा शफीक् हुसैन की महत्वपूर्ण उपलब्धि यह है कि उन्होंने इरफ़ान की शाइरी और उनके सुधी पाठकों-प्रशंसकों के बीच शोध के माध्यम से संवाद करने और उनकी शायरी को पहचानने का एक सुनहरी अवसर उपलब्ध करा दिया है जो लखनऊ के निवासियों को भी प्रेरणा प्रदान करेगा. 

यही इस शोध प्रबंध की महत्वपूर्ण विशेषता है. इरफ़ान सिद्दीकी नई उर्दू ग़ज़ल का वह प्रतिष्ठित नाम है जिसने राह से भटक जाने वाली उर्दू ग़ज़ल को न केवल उसकी मौलिक छंदात्मक काव्य-धारा से साक्षात्कार कराया बल्कि अपनी रचनात्मक प्रतिभा के द्वारा ग़ज़ल के मौलिक तत्वों से नई पहचान कराई. इरफ़ान सिद्दीकी की शाइरी की तत्काल स्वीकृति और समकालीन बड़े शाइरों में पहली पंक्ति तक पहुँच जाने के बावजूद उस दुखद छद्मवेशियों के संकुचित व्यवहार की उपेक्षा नहीं की जा सकती जिनमें नामवर आलोचकों का ज़िक्र हुआ करता है. जिन्होंने इरफ़ान के जीवन में उनपर कुछ लिखने का प्रयास नहीं किया और न ही उनके देहावसान के बाद उनकी शाइरी पर कुछ लिखने का कष्ट किया. 
अत्यंत प्रसन्नता की बात यह है कि जो काम साहित्य के बड़े आलोचलोन से न हो सका उसे अदब के एक युवा और प्रतिभाशाली छात्र ने बड़ी शालीनता और योग्यता के साथ न केवल कर दिखाया बल्कि इरफ़ान सिद्दीकी पर कलम उठाकर उस साहित्यिक दायित्व का भी निर्वाह कर दिया जिसे प्रबुद्ध साहित्यिक आलोचकों को करना चाहिए था. मिर्ज़ा शफ़ीक़ हुसैन शफ़क़ मेरी नज़र में उस समय आये जब वह एम् ए (उर्दू) के छात्र के रूप में मेरे विभाग प्रवेश किया, और विभग की साहित्यिक गतिविधियों में भाग लेना शुरू किया. तब यह रहस्योद्घाटन हुआ कि मिर्ज़ा शफ़ीक़ हुसैन शफ़क़ न केवल इरफ़ान सिद्दीकी की शाइरी के परमभक्त हैं बल्कि एक श्रोता की तरह स्थाई रूप से वह उनसे उनकी शाइरी साक्षात् सुनते भी रहते हैं और उनकी शाइरी की खूबियों के साथ उसमें से साहितियिक सौंदर्यता के प्रतीक शब्दों के माणिक-मोती चुनते रहते हैं.
      इरफ़ान सिद्दीकी की शाइरी में उनकी रूचि देखकर मैंने उन्हें मशविरा दिया कि वह एम् ए के संक्षिप्त शोध प्रबंध के लिए इरफ़ान सिद्दीकी का चयन करें. मिर्ज़ा शफ़ीक़ ने सहर्ष मेरे सुझाव को मानते हुए पूरे परिश्रम व पूरी लगनशीलता के साथ इरफ़ान सिद्दीकी के 'व्यक्तित्व और कला' पर पांच अध्याय में विस्तृत एक ऐसा शोध-प्रबंध तैयार किया जिसे निर्विवाद रूप से इरफ़ान सिद्दीकी कीअविस्मरणीय पहचान के रास्ते का पहला चरण माना जायेगा.
      मिर्ज़ा शफ़ीक़ अभी युवा हैं लेकिन उन्होंने इरफ़ान सिद्दीकी पर जो कुछ लिखा हैं, वह न केवल उर्दू की काव्यात्मक आलोचना के लिए उपयोगी है बल्कि इरफ़ान के सुधी पाठकों के लिए वरदान है. मिर्ज़ा शफीक् हुसैन की महत्वपूर्ण उपलब्धि यह है कि उन्होंने इरफ़ान की शाइरी और उनके सुधी पाठकों-प्रशंसकों के बीच शोध के माध्यम से संवाद करने और उनकी शायरी को पहचानने का एक सुनहरी अवसर उपलब्ध करा दिया है जो लखनऊ के निवासियों को भी प्रेरणा प्रदान करेगा. यही इस शोध प्रबंध की महत्वपूर्ण विशेषता है.

                                                                                                                   

-प्रोफ़ेसर अनीस अशफ़ाक़, लखनऊ
पुस्तक : इरफ़ान सिद्दीकी , शख्स और शाईर
(हिंदी में) : इरफ़ान सिद्दीकी, शख्स और शाईर
भाषा : (मूल) उर्दू
(हिंदी में अनूदित-(अनुवाद) : डॉ.रंजन ज़ैदी
लेखक : डॉ. मिर्ज़ा शफ़ीक़ हुसैन 'शफ़क़'
प्रकाशक : एजुकेशनल पब्लिशिंग हॉउस, दिल्ली.
ISBN : 978-81-8223-427-7
पृष्ठ : 240                                                                                                                           facebook.com/ranjanzaidi786 ________________________________________________________________
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बुधवार, 6 जुलाई 2016

मेरी नई पुस्तक. से -/2 रंजन ज़ैदी

इंतज़ार हुसैन ने अपनी उर्दू रचना 'चन्द्र ग्रहण' यानि چاند گہن के एक पात्र सिब्तैन سبطیں जो विभाजन से पूर्व
इंतज़ार हुसैन
हिंदुस्तान के किसी कालेज में प्रोफ़ेसर होता है, लेकिन इसके साथ ही साथ उसे पत्रारिता में भी रूचि होती है लेकिन जब वह हिदुस्तान से हिजरत कर पाकिस्तान के शहर लाहौर पहुँचता है और वहां रहकर महसूस करता है कि वहां के समाज के बीच रहकर बड़े पैमाने पर स्वैच्छिक क्षेत्र के विकास का काम किया जा सकता है, इसमें उसकी पत्रकारिता काफी लाभदायक सिद्ध हो सकती है. ऐसा निर्णय लेने बाद वह ऐसे किसी प्रिंटिंग प्रेस की तलाश में जुट जाता है जो लावारिस हो. इसके लिए वह पुनर्वास विभाग से संपर्क कर एक लावारिस प्रिंटिंग प्रेस को अपने नाम एलाट कराने की जद्दोजहद शुरू कर देता है लेकिन बाद में पता चलता है कि उसे किसी महाजिर धोबी के नाम एलाट कर दिया गया है. सिब्तैन की किस्मत में लांड्री लिख दी जाती जिसे लेकर अंततः उसे संतोष कर लेना पड़ जाता लेकिन उसके लिए भी वह सही समय पर दफ्तर नहीं पहुँच पाता है और लांड्री भी हाथ से निकल जाती है. यहीं से उसके अर्थहीन संघर्ष की कहानी रफ़्तार पकड़ती है. बेढंगे एलाटमेंट और प्रशासनिक अव्यवस्था का ज़िक्र इतिहासकार कहीं भी करता नज़र नहीं आता है, और न ही वह सिब्तैन के माध्यम से तत्कालीन मानवीय त्रासदियों का ज़िक्र कर पाता है जिनका सामना वहां के महाजरीन कर रहे थे. इंतज़ार हुसैन ने इतिहासकारों के सामने एक दूसरा ही दृष्टिकोण प्रस्तुतकर इस बहस को एक नई तुर्फगी अर्थात एक नए और अनोखेपन का स्वर दे दिया जिसने 19वीं शताब्दी यानि प्रथम विश्वमहायुद्ध के समय तक रचे गए साहित्य को यथार्थवादी-साहित्य कहा और आंद्रे ब्रिटॉन (Manifestos of surrealism p-14) ने अपने समय के उपन्यास जैसी कमतर श्रेणी वाली विधा को 'अभिव्यक्ति की तकनीकी माध्यम का एक दर्जा' बताया. इनके समकालीन रचनाकारों में काफ्का या जेम्स ज्वाइस अपने भिन्न मतभेदों के बावजूद तत्कालीन औपन्यासिक साहित्य के अस्तित्व को नकारने के लिए तैयार नहीं थे लेकिन वे यह मानते थे कि स्वप्न में दिखी कहानियों को लिखा जा सकता है, लेकिन उसे इतिहास नहीं कहा जा सकता है.अब्दुल्लाह हुसैन के उपन्यास 'नादार लोग' نادار لوگ' का एक पात्र है याक़ूब (पंजाबी). वह ज़मीन की सुगंध से परिचित है. ज़मीन चाहे हिंदुस्तान की हो या पाकिस्तान की, किसान को बेदखल करना नहीं जानती है. याक़ूब के साथ कुछ ऐसा ही होता है. भ्रष्ट प्रशासन उसे अपने स्वार्थ सिद्ध करने के उद्देश्य से जागीरदार बनाना चाहता है लेकिन वह किसान साढ़े 12 कल्ले ज़मीन को ही लेना सही समझता है, इतिहासकार ऐसे महजरीनों की कहानियों को समाज से उठाकर उन्हें इतिहास में ज़िंदा नहीं रखना चाहता है, उसे उपन्यासकार ही अपना आशियाना उपलब्ध कराता है. Cont...-/3

सोमवार, 4 जुलाई 2016

मेरी नई पुस्तक. 'उपन्यास के कालचक्र' से/-रंजन ज़ैदी

                                                                                               मेरी नई पुस्तक.  'उपन्यास के कालचक्र' से)                                                                                                                        -रंजन ज़ैदी

                        
पन्यास, अपने समय-काल का आईना हुआ करता है जिसे हम अपने समय का सामाजिक, राजनीतिक ऐतिहासिक दस्तावेज़ भी कह सकते हैं. वह इतिहास नहीं होता है, लेकिन दीवार पर टंगी ऐतिहासिक पेंटिंग में ज़िन्दगी के होने का अहसास अवश्य पैदा कर देता है.
            हमारे सामने भारत-पाक विभाजन की पीड़ा को दर्शाती पेंटिंग हमें अतीत के भूखंडों पर पहुंचाती है तो अकस्मात् कानों में भारत-पाक विभाजन के शिकार डेढ़ करोड़ हिन्दू-मुस्लिम महाजरीनों की चीखें गूंजने लग जाती हैं. वहां तब इतिहास गवाही तो देता है लेकिन उपन्यास अपने समय को सामने ला खड़ा कर देता है. ऐसी चीत्कारें मैंने कराची के सफर के दौरान जिना-पार्क कब्रिस्तान में सुनी हैं. जब पाठकों के सामने उपन्यास 'बस्ती' (इंतज़ार हुसैन) प्रकाशित होकर आया तो इतिहासकारों को पता चला कि महाजरों के कैम्पों में कितनी अनार्की फैली हुई थी, इंसान कितना बड़ा दरिंदा बन चुका था, राज़ खुला कि इंसान लाशों से भी बलात्कार कर सकता है.
      इतिहास बताने की स्थिति में नहीं था कि जो बवंडर आया था उसने नए बदलते परीवश में भारत-पाक दोनों मुल्कों के इंसान को आर्थिक, सामाजिक और व्यवसायिक रूप से विकृत करके रख दिया था, जो कुछ नहीं था, वह महलों में पहुँच गया था, जो बहुत कुछ था वह झुग्गी में सिमट गया था. अस्तित्व के स्थायित्व की लड़ाई ने झीने पर्दों की ओट में मानवीय स्वभाव के हर आयाम की कीमत लगाकर बेचने वाले सौदे के रूप में फुटपाथ तक पहुंचा दी थी.
            पश्चिमी उत्तर प्रदेश का ज़मींदार लाहौर या कराची पहुंचकर रिक्शे की गद्दी पर तो बैठ गया लेकिन वह अपने वतन में रहकर अपनी तथाकथित प्रजा के साथ आज़ाद भारत में खुली सांस लेने के लिए तैयार नहीं हुआ क्योंकि वह खुली आँखों में रहने-बसने वाली नींद में दिखाई देते रहने वाले ज़मींदार को शर्मिंदा नहीं होने देना चाहता था. इसलिए 'चलता मुसाफिर' (अल्ताफ़ फ़ातिमा, उर्दू उपन्यासकार,लाहौर) अपनी रूह को अपने वतन में छोड़कर पाकिस्तान चला तो गया लेकिन आज तक वह अपनी जड़ों से उखड़ नहीं पाया. वह आज भी पाकिस्तान में मुहाजिर बनकर ज़िंदा रहने के लिए अभिशप्त है. अपने समय का इतिहासकार इस तरह की त्रासद स्थितियों के संजाल का रहस्योद्घाटन करने में असमर्थ था, लेकिन उपन्यासकार को अपने पात्रों के साथ परदे के इस पार आने में कोई संकोच नहीं था. वह यशपाल (झूठा सच) के पास भी पहुंचा तो भीष्म साहनी (तमस) के पास भी, इंतज़ार हुसैन (बस्ती) के पास पहुंचा तो कुर्रतुलऐन हैदर ('आग का दरिया') के पास भी.                                                                                                                                                          Cont./-2