تہذیبوں کا پڑاؤ- ادب کا انقلاب URL://www.facebook.com/Dayare-URDU-103457267668234/ Editor : Dr.Zuhair Ahmad Zaidi (alias RANJAN ZAIDI)
शुक्रवार, 25 अगस्त 2023
Dayar-e-URDU : मानस की खोज में मनुष्य को तलाशता कथाकार ‘मंटो’/ रं...
सोमवार, 17 जुलाई 2023
قومی پستی کا زوال اوراردو شاعری کا ارتقہhttps://alpst-politics.blogspot.com/2023/07/dr.html
Dr. Ranjan Zaidi, Author |
مطالعہ سے پتہ چلتا ہے کہ اردو شاعری جن ماحولیاتی نظام میں پیدہ ہوئی وہ زمانہ مغلوں کی حکومت کے عروج اور اردو شاعری کا ارتقہ اور زوال میر تقی میر اور سوده کے زمانے تک رہا- اسی عصر میں قومی پستی کا زوال شروع ہوا- فنون لطیفہ یعنی آرٹ بقول پروفیسر آرنلڈ کے ١٦ویں صدی کے وسط میں انگریزی ادب کی ترققی اور امن و امان کی خوشحالی کو فروغ ملا جب کہ اردو شاعر اپنی نشود نما پانے سے قبل قومی افرا تفری کا شکار ہو گئی اور ایک طاقتور سلطنت کا علم سرنگوں ہو گیا-قسمتیں بدل گئیں اور ملک خانہ جنگی کے غبار میں شعرو ادب کی محفلوں سے شاعری اور شاعروں ہی نسبتوں سے غایب ہوتے چلے گئے- ایسے ماحول میں بھی شاعروںکا وجود اپنی قابلیتوں کی پرورش کرتا رہا لیکں حقیقت یہ ہے کہ اس وقت کے حالات کا شاعری پر برا اثر پڑا-
اور نتیجتنا جو زبان یعنی فارسی ہندوستانی زبان و ادب کے لئے الہام بنی ہوئی تھی- اسنے ١٦وین صدی کے جاتے ہوے ادبارپر فارسی شاعری پر جمود طاری کردیا-اور علامتیں جو پہلے تک زندگی کا صیغہ بن کر ایک اٹھان کا جذبہ بنی ہوئی تھی وہ اپنی علامتوں کے ساتھ مفقود ہوکر رہ گئی- یا یوں کہیں کہ انحتاط کا باعث بن گی اور اردو شاعروں کی تقلیدی ذہنیت ایک نی جہد کی تلاش میں مذمّت کا باعث بنی-اور مولانا الطاف حسین حالی کو مقدّمہ شعروشاعری کے ذریعہ سخت مذمّت کرنی پڑی- اس دوراندو لائن
پر اکبرآلہ بادی اور اسماعیل میرٹھی کے ساتھ دوسرے شعرآ کو بھی اپنے پانون جلانے پڑے- جب شعری ماحول کے بننے کا وقت آیا ٹیب تک فضا ختم ہو چکی تھی- (cont/-2)
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बुधवार, 27 जुलाई 2022
हिंदी में मुस्लिम साहित्यकारों का योगदान' ग्रंथमाला-2022
बुधवार, 30 सितंबर 2020
सैजादा/ कथाकार : रंजन ज़ैदी
रशीदन छोटी पीर के मज़ार के पायंती माथा टेके फूट-फूट कर गिड़गिड़ाए जा रही थी, ”मेरे पीर मुरसिद! घर में सौकन बैठ जाए तो पेट के गुजारे के लिए डाकनी कौ बहन बना लेती, पर उसे तो सौकन भी नहीं कह सकती....हरामी मेरी छातियों के बीच बैठ कर मेरे पेट में एड़ियां घुसेड़-रा है ! उस पै ऐसा जिन्न-भूत छोड़ दो साईं कि उस हरामी की सिट्टी-पिट्टी गुम जाए......!“
”रशीदन.......“ पसली में ठहोका देकर सहेली ‘सायजहां’ ने सिर पर दुपट्टे के पल्लू को सही किया, बोली, ”सूरज पछांव को पहुँच-रा है, अब दुआ मांग चुक रसीदन। मुझे घर पहुंच कै रोटी भी सेंकनी है. मरद के आने से पहले उसके वास्ते चूल्हा गरम कर देती है मैं. मुन्नी भी मदरसे से आन वारी ! चल उठ....."
”अच्छा सरकार........! ‘सायजहां’ को तेज़ नज़र से देख कर रशीदन ने दोनों हथेलियां ऊपर उठाकर गहरा सांस छोड़ा और गिड़गिड़ाई, "बंदी जाय रई है. कल फिर हाजरी देवेगी। औरत की तो झोपड़ी भी मकान से कम न होवे है. हम गरीब लोगन के समाज में भी औरत तो मरद के आसरे से ही जीवे है. साईं, मेरे मरद को मेरा मरद ही बना रहने दे.“ कहते ही वह अपनी कमर पर हाथ रखकर उठ खड़ी हुई. दुआ के लिए फिर हथेलियां जोड़ीं, फुसफुसाई, ”मेरा कहा मान लेना पीर दस्तगीर. ......बहुत बड़ी फूल-चादर चढ़ाऊंगी और पुलाव की नियाज भी कराऊंगी। सच्ची कहती हूँ. झूठ बोलूं तो मुंह में कोयला झोंक देना, हाँ !.“
उसने दुपट्टे के आंचल से मुंह को साफ किया और कुछ आश्वस्त-सी हुई। सायजहां से बोली, ”चल सायजहां, कल पीर के हियां फिर आवैंगे.......।“
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रशीदन जब घर पहुंची तो उसने संतोष का गहरा सांस छोड़ा। घुड़साल खाली था और मकान
के बरोठे वाले दरवाजे की कुंडी में ताला पहले से ही लटक रहा था। मतलब साफ था कि बुंदू पहलवान अभी लौटा नहीं था। वैसे उसको आने में अब कुछ ही देर जा रही थी। वैसे भी वह रात की ट्वेल्व डाउन देख कर ही वापिस आता है।
तांगे की सवारियों से ही तो पेट की दोज़ख पटती है. सवारियां आएंगीं तो राशन आएगा, लेकिन अचानक उसका चेहरा कुम्हला सा गया. वह सोचने लगी, वह लड़का भी तो उसके साथ आएगा, जिसने रशीदन का जीना दूभर कर रखा है। जब से उसने उसकी दुनिया में पांव पसारे हैं, उसकी तो दुनिया ही उजड़ कर रह गई है। न वह पेट भर कर खाना खाती है, न बुंदू पहलवान के साथ उसके पलंग पर पहुंच पाती है। जाने कहां से यह मुरदार पहलवान की एक पसली बन कर आ गया है। ज़रा भी आंखों में लिहाज-शरम नहीं है, मानो पहलवान की शादी रशीदन से नहीं, बल्कि उस लड़के से हो गई लगती है। रशीदन तो बस रोटी बनाने और बरतन मांजने भर के लिए है।
सलवार घुटनों से फट गई है, पर पहलवान को कोई फिकर नहीं। उस हरामी के लिए नए-नए कपड़े सिल रै हैं, नए-नए जूते चप्पल आ रै हैं, जबकि रशीदन के पांव नंगे हैं, जो उसकी जोरू है, घर की इज्जत है। कई दिन हो गए, कहा था कि सिर का तेल ला देना, ‘खुस्की’ हो गई है, पर मजाल जो कान पै जूं रेंग जाए और उस लौंडे की जुल्फों को तर करने के लिए कीमती-कीमती सीसियां चली आ रई हैं। और लौंडा, है कित्ता चालाक! सीसियां ताक पे नहीं रखता, झट अलमारी में रख ताला डाल देवे है। उसे महीनों हो गए दूध पिये....और यह लड़का रोज सुबह-शाम दूध पीवै है। जाने कहां से पिल्ला आन मरा, जिसकी कोई खोज-खबर ही नई लेता। धीरे-धीरे पहलवान की सारी कमाई टेंट में समेट-समेट कै निगलता जाय है, हरामी। न मालूम उसके मरद पर कौन-सा जादू कर दिया है इस पिल्ले ने जो उसका आसिक होकर अपनी औरत की तरफ से एकदम नज़र फेर बैठा है। रोक-टोक करे तो मरद की चाबुक पसलियों तक को भेद जाए.......।“
दर्द की टीस भरी लहर ने रशीदन को हिला कर रख दिया, आंखें भर आईं। चूल्हे के पास अंधेरे में बैठी वह फिर सिस्कियां भरने लग जाती है।
”मुआ! मायके में भी तो कोई नई रा..........., जिसपै फूलकै वह पहलवान से टकरा जाती। बूढ़े डोकर-डोकरी, छप्पर-फूस की रखवाली करते-करते दुनिया से चल बसे। सगे-संबंधी भी खुसहाली के साथी होए हैं, बिपद पै कौनो साथ नहीं देता। कल अगर पैलवान घर से निकाल दे तो कोई दो निवाले रोटी तक को भी नई पूछैगा। ऐसे में अल्लामियां भी खूब हैं जो कानी कोख देकै सात आसमानों पै गुमनाम बने गुनगुनाय रै हैं और रशीदन एक बच्चे की चाह में तड़प रई है। काश! एक बच्चा होता, वोई किलक-किलक कै पैलवान को उसकी खाट तक बुलाय लेता। पर, जनमजली को तो फूट-फूट कै रोना बदा है, वह तो रोवैगी और जिनगी भर रोवैगी......कबर में भी चैन नई मिलेगा...........!“
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बुंदू पहलवान ने तांगे से घोड़ा खोल कर घुड़साल में लाकर बांध दिया। इस बीच घोड़े का साज- सामान उसके साथ का लड़का संभाल कर जमा करने लगा, तभी घुड़साल से पहलवान ने हांक लगाई, ”रैन दे सैजादे! हथेली की खाल उधड़ जावेगी, मैं अबी आरिया हूं।“ सुन कर सैजादे ने अपने हाथ समेट लिए और छप्पर के अंदर वाले दरवाजे की ओर देखने लगा,जिधर से अंधेरा ही अंधेरा झांक रहा था। पहलवान के पास आते ही सैजादे ने पूछा, ”आज घर में अंधेरा कैसा है पहलवान? क्या चच्ची को मायके भेद दिया......?“
अब पहलवान को भी अंधेरे का एहसास हुआ। साज-सामान बटोरते हुए बोला, ”देखरिया हूं कि तेरी चच्ची की आजकल नाक काफी चढ़ गई है। टाल रिया हूं, पर जिस दिन पानी सिर से लांघ गया, सुसरी की नाक काट डालूँगा बस, येई सोच के टाल रिया हूं कि सुसरी को कोई पूछने वाला भी नई रैगा। भीख मांगती फिरैगी साली.....!“
”बुरी बात है पहलवान!" सैजादे ने बड़े-बूढ़ों की तरह उसे समझाने की कोशिश की, “ऐसा नहीं सोचते। आखिर वह है तो तुम्हारी बीवी। उसी के साथ तुम्हारी उम्र गुज़रनी है। मेरी वजह से तुम अपनी सारी उम्र को आग लगा रहे हो। अगर मैं न हूं तो तुम दोनों खुश-खुश रह सकते हो। कहता हूं कि मुझे छोड़ दो, पर तुम राज़ी ही नहीं होते.......।“
”छोड़ दूं!“ पहलवान की मोटी आवाज फट सी पड़ती है, ”कैसे छोड़ दूं........? माल खिलाता हूं, वो भी अपना..........। उस बेंचों के मायके से तो नई ले आता। उसके बाप की कमाई से अपना सौक तो पूरा नई कर रिया हूं.......!“ वह सीधा खड़ा होकर बैल की तरह डरकाने लगा था, ”खुद कमाता हूं, मेहनत करता हूं.......जुआ नई खेलता, सराब नहीं पीता.....बोलो सैजादे! क्या गलत कहता हूं?“
दीवार की टेक लेने के चक्कर में सैजादे की एड़ी में बबूल का कोई कांटा खुब जाता है। दर्द की सिसकारी के साथ वह जबड़े भींचकर कांटा निकालता है लेकिन उसके कानों में पहलवान के शब्दों की अनुगूंज उसे बेचैन कर देती है, “छोड़ दूं.......कैसे छोड़ दूं? माल खिलाता हूं, वो भीअपना...............।“ शरीर में कम्पन तैर जाता है।
वह किवाड़ की ओर लपका, तभी धाड़ से उसका माथा किवाड़ की चौखट से टकरा गया, पर उसने चोट सह ली और पहलवान को इसकी इत्तला नहीं दी। पीछे से पहलवान बिफरे हुए जंगली भैंसे की तरह तीर जैसी गति से किवाड़ के भीतर जाकर गायब हो गया, फिर रशीदन ‘हाय दैय्या’ कह कर चीखी और ‘सैजादा’ सिहर उठा। तभी धम्म से आंगन में कोई वस्तु आकर गिरी, आवाज़ रशीदन की आई, ”हाय मैय्या.....हाय दैय्या मैं मरी..........अरे माडडाला हरामी ने।“
‘सैजादा’ करवट लेकर लेट गया, पर आंखों में नींद नहीं थी। कानों के पर्दों से रह-रह कर पहलवान के शब्द टकराने लगते थे, “छोड़ दूं.......कैसे छोड़ दूं? माल खिलाता हूं, वो भी अपना...।“ उसकी आंखों की कोरें भीग गईं और ओंठ थरथराने लगे। भीगी-भीगी आंखों के सामने घर, भाई-बहन, मां-बाप, उनके बीच के जीवन की झांकियां उभरने लगीं। पश्चाताप के अंधड़ ने उसके अस्तित्व को झिंझोड़ कर रख दिया। नहीं मालूम उसके गरीब अब्बू, उसे कहां-कहां ढूंढते फिर रहे होंगे? उसे घर से भाग कर नहीं निकलना चाहिए था। कितने ही लोग हर साल फेल हो जाते हैं, क्या सभी भाग जाते हैं? भाग आने के बाद भी तो उसे चैन नहीं मिला? क्या वह पास हो गया? पास तो तभी होगा जब वह फिर से इम्तिहान दे। पहलवान की ऐसी सोहबत में वह कैसे पढ़ाई कर सकेगा? यह तो एकदम गली के सांड जैसा है, एकदम जंगली भैंसे की तरह अपनी बीवी पर टूट पड़ता है। उफ़! रात उसने रशीदन को कितना मारा, कितना पीटा, लातों-घूंसों से उस बेचारी को अधमरा कर दिया था। वह मेमने की तरह भेड़िये के आगे मिमिया रही थी। उसने ऐसा कौन-सा जुर्म कर दिया था? यही न कि उसने
लालटेन नहीं जलाई थी। यह कोई ऐसा जुर्म नहीं कि जिसकी सज़ा में उसका कचूमर ही निकाल दिया जाए। हालांकि वह उससे जलती है और सौतेली मांओं जैसा सुलूक करती है, पर रशीदन उसके लिए पिटे, या अंदर ही अंदर सुलगती रहे, यह वह हरगिज़ नहीं चाहता। लेकिन उसके चाहने से भी क्या हो सकता है। क्या अब तक जो कुछ भी हुआ, वह सब उसी के चाहने से होता रहा है, कतई नहीं। परिस्थितियों ने मकड़ी बन कर उसे अपने जाल में फांस लिया है और वह अपने कमज़ोर हाथों से उस जाल को काटने में खुद को कितना मजबूर पा रहा है, कितना बेबस।
‘सैजादे’ को पहले दिन, जब उसे स्टेशन से पहलवान अपने घर लाया था तो रशीदन खुश हुई थी। उसने खूब-खूब खातिरें कीं, पर रात को जब पहलवान ने रशीदन की जगह उसे लिटा लिया तो रशीदन चोट खाई नागिन की तरह फुंफकार उठी। शायद उस रात रशीदन की नाभि में डाह भरा विष छलक कर उसके कंठ तक पहुंच जाता, पर नागिन फनफना कर रह गई, क्योंकि पहलवान ने उसके संपूर्ण शरीर को अपने विशालकाय अस्तित्व से ढांप लिया था। परंतु घटना को यहीं समाप्त नहीं होना था। इसे तो कहानी में परिवर्तित होना था। सुबह होते ही घर में पहला विस्फोट हो गया।
”ये लौंडा घर में नई रैगा!“ ‘रशीदन चीख उठी’।
”पर अपना सैजादा यही रहेगा और वैसेई रहेगा जैसेई में चाहूंगा.........।“
”मैं जहर खायलूंगी .........“ रशीदन बरबस रो पड़ी, ”पर इस लौंडे को अपनी सौकन बना के नई रखूंगी........हां! कहे देती हूं।“
”तो सैजादा तेरी सौकन है, तेरी तो बहन की आँख .........।“ वह दांत पीसता हुआ रशीदन की ओर बढ़ा और उसने मुक्का हवा में उछाल दिया, ”तू कैसे नहीं रैने देगी साली.......ऐं।” घूंसा रशीदन की नाक पर पड़ा और वह पीछे गिरती हुई दीवार से जा टकराई। फिर तो जैसे पहलवान पर मारते खां का भूत सवार हो गया और सैजादे ने पलकें मूंद लीं। इस घटना के बाद से रशीदन को सैजादे से भी नफ़रत हो गई।
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सैजादे लेटा-लेटा सिस्कियां भरने लगा था और रशीदन पास के पलंग पर करवट लिए सूनी-सूनी चमकीली आंखों से एकटक देखे जा रही थी। नहीं मालूम, वह इस समय क्या सोच रहा थी। पर सैजादे की घिग्घी सी बंध गई थी और आंसू भरी आंखों के आगे सब कुछ धुंधलाता जा रहा था।
नहीं मालूम कब? सैजादे ने अपने माथे पर कोमल स्पर्श की अनुभूति की। वह आंखें मूंदे अचेतावस्था में लेटा उस स्पर्श और स्पंदन को महसूसता रहा, फिर ”टप“ से गर्म-गर्म आंसू की कोई बूंद उसके कपोल पर पड़ी तो उसकी पलकें थरथरा कर उठ गईं। उसने देखा, उसके ऊपर रशीदन झुकी हुई है और एकटक उसे देखे जा रही है। आंसू की एक और बूंद गिरती है और सैजादे का कोमल हृदय ज़ोर-ज़ोर से धड़कने लगता है। उसके सामने उसकी मां का चेहरा घूम जाता है। मां, भावावेश में उसके मुंह पर अपना मुंह रख कर अपने आंसुओं से उसका मुंह तर कर देती है। उसके कानों में हजारों दर्द लिए शब्द गूंज उठते हैं, ”मेरे बच्चे........मेरे लाल! काय को तू अपनी जिनगी के पीछे पड़ गया हे रे। यां से चला जा मेरे लाल......भाग जा! वैसेई.......जैसे तू अपने घर कूं छोड़ के भागा होगा।“
पहलवान की खरखराहट थम जाती है और वह भैंसे की तरह सांसें छोड़ता हुआ सैजादे की ओर मुड़ जाता है। उसकी भारी बांह सैजादे को पूरी तरह से जकड़ लेती है।
जैसे ही पड़ोस की मस्जिद से अज़ान कानों से टकराई, पहलवान उठ कर बैठ गया। उसने बीड़ी सुलगाई और उड़ती नज़र से पास बिछी खाट पर सोती हुई रशीदन को देखा। बीड़ी की धांस से खांस लेने के बाद उसने हांक लगाई, ”सैजादे.....जल्दी पखाने से बाहर आ, गाड़ी का टेम हो रिया है।“
रशीदन ने पलकों के झरोखे से पहलवान को देखा और फिर उसकी ओर से करटव फेर ली। काफ़ी देर हो जाने पर पहलवान ने पुनः हांक लगाई, ”अरे आज क्या हो गया सैजादे! कबाक हो गया क्या?गाड़ी का टेम हो रिया है भाई, सवारियां छूट जावेगी।“
आकाश पर उजास भरी नीलिमा फैलने लगी थी और चिड़ियों का कलरव गूंजने लगा था। पहलवान कुछ बेचैन सा हो उठा। उसने खाट से उतर कर तहबंद में गांठ लगाई और फिर पाखाने की ओर मुड़ गया।
‘सैजादा'
वहां नहीं था।
‘सैजादा'
घर के किसी भाग में नहीं मिला। उसकी कोठरी में सैजादे के कपड़े टंगे थे, जो उसने सैजादे के लिए बनवाए थे। अल्मारी के पट भी खुले थे, जिसमें शीशा, कंघा, तेल, सुरमेदानी, धूप की ऐनक.......सब कुछ मौजूद था, पर सैजादे गायब था, उसका छोटा ब्रीफ़केस और उसके पुराने कपड़े गायब थे, जिन्हें वह लेकर आया था। पहलवान पागलों की तरह तहबंद बांधे-बांधे घर से निकल भागा, शायद वह सैजादे को ढूंढने के लिए ही घर से निकला था और रशीदन उसे पागलों की तरह घर से बाहर जाते देखती रही थी। उसके जाने के बाद रशीदन पीठ के बल लेट गई और मुंह छत की धन्नियों की ओर कर लिया। उसका मुख एकदम ओस से भीगे हुए ताजा खिले गुलाब जैसा हो गया था।
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”हे साईं ! मान ले छोटी सरकार की बात। बुजरुग और पहुंचे हुए पीर पगारू हैं यह! इनके दरबार में फरियाद लैके आई हूं। नई सुनैगा तो मैं कडुवी निबोली की तरह डाल से टूट कै इसी जमीन में सड़-गल जाऊंगी...........।“ रशीदन फिर मज़ार पर माथा टेकने आ पहुंची थी।
”उसे वापिस भेज दो। मैं मार खाय के जी लूंगी। मरद के सारे जुलम सै लूंगी। उसे सौकन बनाने को भी राजी हो जाऊंगी। सब सह लूंगी, पर यह नहीं सै सकती कि अपना मरद काम-काज छोड़ कै घर में डेरा डाल दे.......या वो मरद होयके औरतों की तरह टेसुए बहाता रै............“ रशीदन अब सिस्कियां नहीं भर रही थी, पर संवेदना-भरे स्वर में दुआएं अवश्य कर रही थी। उसने सिर उठा कर उसे पल्लू से ढका और दुआ के लिए हाथ उठा लिए।
”सैजादे मेरे मरद की खुसी है..............मैं अपने मरद की खुसी चाहू हूं छोटे सरकार! उसे भेज दो तो फूलों की चादर चढ़ाने आऊं, पुलाव की नियाज भी कराऊं और चांदी का ताबीज भी चढ़ाऊं। गरीब की फरियाद सुनने वाले साईं! मैं सच-सच कै रई हूं। वह अगर लौट आया तो तांगे का पहिया फिर घूमने लगैगा! गरीब तांगे वाले का पहिया रूक जाए तो कां से खाएगा पीरदस्तगीर? वोई तो उसकी रोजी होय है। कोई औरत अपने मरद की रोजी कैसे छिनती देख सकैगी हजूर, सरकार.............उसे वापस भेज दो! मैं सब कुछ करने को तैयार हो गई हूं..............औलाद जो नहीं है न !
रशीदन फिर माथा टेक कर सिस्कियां भर-भर रोने लगी और देर तक रोती रही। सायजहां से जब रहा न गया तो उसने उसे ठहोका दिया और बोली, ”रसीदन! चल, सांझ हो रही है। सूरज पछांव को पहुंच रा है। सबेरे-सबेरे पहुंच गई तो जल्दी से रोटी सेंक लेगी। आज तो तेरे पैलवान ने दोपहर में भी रोटी नई खाई.........चल उठ!“
रशीदन ने आंसुओं से भीगे हुए मुंह पर जब दोनों हाथ फिराए तो वह अंदर से काफ़ी संतुष्ट और आश्वस्त दिखाई देने लगी थी।
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