
हैरान कर मुझे मिरी आँखों में ख्वाब रख।
अपने लबो-रुखसार के सारे गुलाब रख।
कितने सितम किये हैं लगाई है कितनी आग,
तू अपने ज़ुल्मो-जोर का कुछ तो हिसाब रख।
थोड़ी सी कम तो कर मिरी आँखों की तिशनगी,
परदा उठा के दीद का जामे-शराब रख।
घबराके गिर न जाएँ फलक से मओ-नुजूम,
इतना अयां न हो ज़रा रुख पे नक़ाब रख।
अपनों की चाहतें नहीं मंज़ूर गर तुझे,
गैरों से मेल-जोल में कुछ तो हिजाब रख।
आजिज़ से गर लगाव नहीं तुझको ना-सही,
लेकिन ज़रा संभाल के हुस्नो-शबाब रख।
'अख़बारे-जहाँ' उर्दू, कराची से साभार।
