सोमवार, 21 जुलाई 2014

ग़ज़ल / हैरान कर मुझे..../ अफ़ज़ाल आजिज़ (पाकिस्तान)

ग़ज़ल / अफ़ज़ाल आजिज़ (पाकिस्तान)

हैरान कर मुझे मिरी आँखों में ख्वाब रख। 
अपने लबो-रुखसार के   सारे गुलाब रख। 

कितने सितम किये हैं लगाई है कितनी आग,
तू अपने ज़ुल्मो-जोर का कुछ तो हिसाब रख। 

थोड़ी सी कम तो कर मिरी आँखों की तिशनगी,
परदा उठा के दीद का जामे-शराब रख। 

घबराके गिर न जाएँ फलक से मओ-नुजूम,
इतना अयां न हो ज़रा रुख पे नक़ाब रख। 

अपनों की चाहतें नहीं मंज़ूर गर तुझे,
गैरों से मेल-जोल में कुछ तो हिजाब रख। 

आजिज़ से गर लगाव नहीं तुझको ना-सही,
लेकिन ज़रा संभाल के हुस्नो-शबाब रख।
'अख़बारे-जहाँ' उर्दू, कराची से साभार।

शनिवार, 19 जुलाई 2014

ग़ज़ल / दबीर सीतापुरी

ग़ज़ल / दबीर सीतापुरी


किरदार को मेराज पर पहुँचाओ तो जानें। 
इक क़ौम में माबूद भी कहलाओ तो जानें।
माना  बड़ा क़ाबू है ज़बाँ और मकाँ पर,
बे हर्फ़ अलिफ़ गुफ़्तगू फ़रमाओ तो जानें।
दुश्मन हो तहे-तेग़ बहुत-ख़ूब मगर हाँ,
अब ऐसे में सीने से उत्तर आओ तो जानेँ। 
बाज़र्फ था क़ातिल ये कहे ख्वाहारे-मक़तूल,
यूं जंग के असबाब  बजा लाओ तो जानें।
काबे में विलादत हो तो मस्जिद में शहादत,
यूं आओ तो इस तरह चले जाओ तो जानें।
 प्रस्तुति : हसन इमाम ज़ैदी , दुबई 
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Kirdar Ko meraj per pahuchao to Jane
Ek qoum me mabood bhi kahlao to Jane

Mana bada qabu hai zuban aur bayan per
Be Harfe alif guftugu farmao to Jane

Dushman ho tahey tegh bahot khoob magar Han
Ab aise me seene se utar aao to Jane

BaZarf tha qatil ye kahe qwahare maqtool
Yoon Jung ke aadab baja lao to Jane

Kabay me Wiadat ho to masjid me shahadat
Yoon aao to is tarah chale jao to Jane

-Dabeer Sitapuri

शुक्रवार, 18 जुलाई 2014

हकीम मोमिन खां मोमिन-3/ डॉ.रंजन ज़ैदी,ज़ैदी

गतान्क से आगे -/3
हकीम मोमिन खां 'मोमिन'


हाँ अगर हम आबे-हयात का ज़िक्र करे तो कतई गलत होगा. आबे-हयात के अनुसार इसी ग़ज़ल को लेकर शेफ्तः ने फारसी में इतनी तारीफ लिखी थी कि कालांतर में विद्वानों को उसके उद्धरण तक देने ज़रूरी हो गए थे.  
शायद लोगों को यह जानकर हैरानी हो कि मोमिन बहुत अच्छे नुजूमी यानी ज्योतिषी भी थे. इल्म--नुजूम के एक भविष्यवक्ता के रूप में मोमिन शीघ्र ही महफ़िलों की रौनक बन गए. वह स्वभाव से हंसमुख, रंगीन, जिंदादिल, दोस्तपरस्त, पीने के शौक़ीन और जवान लड़कियों से घिरे रहने वाले नौजवान शायर थे
एक बार सामने एक ऐसा शख्स आया जो किसी मजनूँ  की तरह दिखाई दे रहा था. मोमिन ने अपने इल्म से उसकी कुंडली बनायी और कहा कि नाहक वह जनुओं की तरह भटक रहा है. इल्म कहता है कि जा मिल, तू  कहता है कि वह है संग-दिल. नहीं किया तुम ने अहकाम आजमाए, इन्हीं बातों ने तो ये दिन दिखाए. अगर वह अपने महबूब से जाकर मिले तो यह जुदाई के लम्हे ख़त्म हो जायेंगे. ये सब कुछ सच प़र इतना भी कहेंगे, कि जीते हैं तो एक दिन मिल रहेंगे. खुदा गवाह है कि मजनूँ  की लैला भी मिलने के लिये उसी तरह तड़प रही है, जिस तरह मजनूँ इधर भटक रहा है. यह बात सचमुच हैरत कर देने  वाली थी, लेकिन थी बिलकुल सच. दोनों तरफ आग बराबर लगी हुई थी. 'अभी से गर जफा कम हो तो अच्छा, ज़ियादः रब्त बाहम हो तो अच्छा/नहीं तो होगी उसकी शर्मसारी, किसे मंज़ूर है खिजलत तुम्हारी'.     
      इस बात में कोई दो राय नहीं है कि मोमिन साहित्यकारों में अमीर खुसरो से लेकर  मीर तकी मीर की शायिरी और उनका चिंतन उपलब्ध था लेकिन जब दुनिया में इकबाल ने आँख खोली तो उन्होंने खुद को एक ऐसी पश्चिमी सांस्कृतिक और शैक्षिक संगठनों के प्रभा-मंडल में पाया जिससे ग़ालिब की सहमति उनकी आर्थिक मजबूरी से सम्बद्ध कही जा सकती है क्योंकि उन्हें 'खानदान-ए-मुगलिया' से वसीका मिलता था लेकिन अपने पत्रों में वह अंग्रेजों की प्रशंसा से बचने की कोशिश ज़रूर करते थे, किन्तु मोमिन को वह अपने रास्ते से आगे बढ़ते देखना नहीं चाहते थे. हालाँकि ग़ालिब के प्रशंसकों ने इस धारणा को स्वीकार नहीं किया. क्योंकि बेदिल की शायरी इतनी बुलंद नहीं थी जितनी बुलंदी प़र ग़ालिब की शायरी पहुँच चुकी थी. तर्ज़े-बेदिल में रेख्ता लिखना, असदुल्लाह खां क़यामत है.  बात सही भी थी. ग़ालिब को तो मोमिन से खौफ था. मोमिन की ईर्ष्या  ने ही ग़ालिब को शायरी में इतने गहरे तक उतार दिया कि मोमिन ग़ालिब के सामने बहुत छोटे से लगने लगे, 'धमकी में मर गया जो बाबे-नबर्द था.....  
यही नहीं, वह  दिल्ली कालेज में पालकी पर बैठकर नौकरी मांगने के लिए भी जा चुके थे। फोर्ट विलियम कालेज कलकत्ता में था,  और उसके प्रभाव को भी ग़ालिब मान्यता दे चुके थे। अँगरेज़ अल्लामा इकबाल के भी प्रशंसक थे लेकिन वह  उर्दू साहित्य के आधुनिक काल  के ऐसे  प्रथम  प्रगतिशील शायिर थे जिन्होंने पहली बार  ब्रिटिश साम्राज्यवाद की आलोचना की थी। इस ओर  लोगों का ध्यान बांगे-दराँ में पहली बार  सर अब्दुल कादिर ने आकर्षित किया था।  
उर्दू शयिरी में दार्शिनिक चिंतन का इस्तेमाल सर्व-प्रथम ग़ालिब ने किया, वह अधुनितावाद की ओर बढने  के इच्छुक नज़र आते हैं जैसा कि 'आईने-अकबरी' पुस्तक पर की गई सर सय्यद  की अपनी टिपण्णी के अध्यन से पता चलता है। इनसे पूर्व की शयिरी में शास्त्रीय काव्य और काव्य में अध्यात्मवाद या आत्मवाद  का प्रभाव परिलक्षित था।  (END)
Copyright : डॉ.रंजन ज़ैदी*                                                              

हकीम मोमिन खां मोमिन-2/ ज़ैदी ज़ुहैर अहमद*

Copyright : ज़ैदी ज़ुहैर अहमद*
-2/
 
यहां मोमिन दफन हैं
मोमिन १३१५ हिजरी, यानी सन १८०० में दिल्ली स्थित कूचा--चेलान मोहल्ले में पैदा हुए थे. मोमिन का खानदान बादशाह शाह आलम के शासनकाल में कश्मीर से दिल्ली आया था. दादा हकीम नामदार खां अपने भाई हकीम कामदार खां के साथ  दिल्ली में आकर शाही तबीबों (हकीमों) में शामिल हो गए. दोनों भाइयों की क़ाबलियत और हिकमत की सलाहियतों से खुश होकर बादशाह ने उन्हें परगना नारनोल के मौज़ा बिलहा में जागीर आता कर  दी. कालांतर में जब ईस्ट इण्डिया कंपनी ने नवाब फैज़ तलब खां को झज्झर की रियासत सौंपी तो परगना नारनोल को इसी रियासत में शामिल कर लिया गया. नवाब ने हकीम नामदार के खानदान के साथ नाइंसाफी नहीं की बल्कि हज़ार रूपये की पेंशन बांध दी जो आगे जाकर हकीम मोमिन खां तक को मिलती रही. खुद ईस्ट इण्डिया कंपनीभी मोमिन के परिवार के हकीमों को १००/- प्रति माह पेंशन देती थी. इसमें से एक चौथाई मोमिन के वालिद को मिलता था और बाद में कुछ मोमिन को भी मिलता रहा था. मोमिन का घरेलू नाम हबीबुल्लाह था. लेकिन हज़रत शाह अब्दुल अज़ीज़ कुद्सरह एक ऐसे सूफी बुज़ुर्ग थे जिनके हुजरे में मोमिन के वालिद हकीम गुलाम नबी खां भी हाजरी देते थे, तो बेटे की विलादत प़र हज़रत शाह की दुआओं से उसे कैसे वंचित रखा जा सकता था. फकीर ने बच्चे के कान में अजान दी और नाम रखा मोमिन. घरवालों को बुरा लगा, प़र मोमिन, मोमिन खां हो गए. कुछ का कहना है कि यह फकीर की ही दुआओं की बरकत थी कि मोमिन उर्दू-अदब में एक बलंद शायर बनकर शोहरत की बुलंदियों तक जा पहुंचे...... 
      
मोमिन की बुनियादी तालीम मूलत: घर प़र ही हुई. औपचारिक रूप से उस्ताद शाह अब्दुल कादिर उनके पहले गुरू  बने. मोमिन ने उनसे जो कुछ पढ़ा, वह उनकी जिंदगी का हिस्सा बन गया. इल्म--रोज़गार की ग़रज़ से अपने दोनों चचाओं यानी हकीम गुलाम हैदर खां और हकीम गुलाम हुसैन खां से इल्मे-तिब की ट्रेनिंग ली और अपने खानदानी दवाखाने में बैठ गए लेकिन मन था कि उड़ा जाता था, कल्पनाओं में, अदब के असमानों में...मैंने इस नब्ज़ पे जो हाथ धरा, हाथ से मेरे मेरा दिल ही चला....और कुछ यूँ कि  आफ़ते ताजः जो जाँ प़र आई, ये ग़ज़ल अपनी ज़बां प़र आई. यह शेर जिस ग़ज़ल का है, उर्दू  अदब  के नक्काद यानी आलोचकों का मानना है कि इस ग़ज़ल को लेकर उर्दू अदब मोमिन का अहसानमंद है. /Cont...3

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