बुधवार, 30 सितंबर 2020

सैजादा/ कथाकार : रंजन ज़ैदी

 

हे साईं,  मान ले छोटी सरकार की बात। बुजुरग और पहुंचे हुए पीर पगारू हैं ये..... इनके दरबार में फरियाद लैके आई हूं। नहीं सुनेगा तो मैं कडुवी निबौली की तरह डार से टूट कै इसी माटी में सड़-गल जाऊंगी।

      रशीदन छोटी पीर के मज़ार के पायंती माथा टेके फूट-फूट कर गिड़गिड़ाए जा रही थी, ”मेरे पीर मुरसिद! घर में सौकन बैठ जाए तो पेट के गुजारे के लिए डाकनी कौ बहन बना लेती, पर उसे तो सौकन भी नहीं कह सकती....हरामी मेरी छातियों के बीच बैठ कर मेरे पेट में एड़ियां घुसेड़-रा है ! उस पै ऐसा जिन्न-भूत छोड़ दो साईं कि उस हरामी  की सिट्टी-पिट्टी गुम जाए......!“

      ”रशीदन.......“ पसली में ठहोका देकर सहेलीसायजहांने सिर पर दुपट्टे के पल्लू को सही किया, बोली, ”सूरज पछांव को पहुँच-रा है, अब दुआ मांग चुक रसीदन। मुझे घर पहुंच कै रोटी भी सेंकनी है. मरद के आने से पहले उसके वास्ते चूल्हा गरम कर देती है मैं. मुन्नी भी मदरसे से आन वारी ! चल उठ....."

      ”अच्छा सरकार........! ‘सायजहांको तेज़ नज़र से देख कर रशीदन ने दोनों हथेलियां ऊपर उठाकर गहरा सांस छोड़ा और गिड़गिड़ाई, "बंदी जाय रई है. कल फिर हाजरी देवेगी। औरत की तो झोपड़ी भी मकान से कम होवे है. हम गरीब लोगन के समाज में भी औरत तो मरद के आसरे से ही जीवे है. साईं, मेरे मरद को मेरा मरद ही बना रहने दे.“ कहते ही वह अपनी कमर पर हाथ रखकर उठ खड़ी हुई. दुआ के लिए फिर हथेलियां जोड़ीं, फुसफुसाई, ”मेरा कहा मान लेना पीर दस्तगीर. ......बहुत बड़ी फूल-चादर चढ़ाऊंगी और पुलाव की नियाज भी कराऊंगी। सच्ची कहती हूँ. झूठ बोलूं तो मुंह में कोयला झोंक देना, हाँ !.“

      उसने दुपट्टे के आंचल से मुंह को साफ किया और कुछ आश्वस्त-सी हुई। सायजहां से बोली, ”चल सायजहां, कल पीर के हियां फिर आवैंगे.......

                                                                     ******

      रशीदन जब घर पहुंची तो उसने संतोष का गहरा सांस छोड़ा। घुड़साल खाली था और मकान


के बरोठे वाले दरवाजे की कुंडी में ताला पहले से ही लटक रहा था। मतलब साफ था कि बुंदू पहलवान अभी लौटा नहीं था। वैसे उसको आने में अब कुछ ही देर जा रही थी। वैसे भी वह रात की ट्वेल्व डाउन देख कर ही वापिस आता है।

      तांगे की सवारियों से ही तो पेट की दोज़ख पटती है. सवारियां आएंगीं तो राशन आएगा, लेकिन अचानक उसका चेहरा कुम्हला सा गया. वह सोचने लगी, वह लड़का भी तो उसके साथ आएगा, जिसने रशीदन का जीना दूभर कर रखा है। जब से उसने उसकी दुनिया में पांव पसारे हैं, उसकी तो दुनिया ही उजड़ कर रह गई है। वह पेट भर कर  खाना खाती है, बुंदू पहलवान के साथ उसके पलंग पर पहुंच पाती है। जाने कहां से यह मुरदार पहलवान की एक पसली बन कर गया है। ज़रा भी आंखों में लिहाज-शरम नहीं है, मानो पहलवान की शादी रशीदन से नहीं, बल्कि उस लड़के से हो गई लगती है। रशीदन तो बस रोटी बनाने और बरतन मांजने भर के लिए है।

      सलवार घुटनों से फट गई है, पर पहलवान को कोई फिकर नहीं। उस हरामी के लिए नए-नए कपड़े सिल रै हैं, नए-नए जूते चप्पल रै हैं, जबकि रशीदन के पांव नंगे हैं, जो उसकी जोरू है, घर की इज्जत है। कई दिन हो गए, कहा था कि सिर का तेल ला देना, ‘खुस्कीहो गई है, पर मजाल जो कान पै जूं रेंग जाए और उस लौंडे की जुल्फों को तर करने के लिए कीमती-कीमती सीसियां चली रई हैं। और लौंडा, है कित्ता चालाक! सीसियां ताक पे नहीं रखता, झट अलमारी में रख ताला डाल देवे है। उसे महीनों हो गए दूध पिये....और यह लड़का रोज सुबह-शाम दूध पीवै है। जाने कहां से पिल्ला आन मरा, जिसकी कोई खोज-खबर ही नई लेता। धीरे-धीरे पहलवान की सारी कमाई टेंट में समेट-समेट कै निगलता जाय है, हरामी। मालूम उसके मरद पर कौन-सा जादू कर दिया है इस पिल्ले  ने जो उसका आसिक होकर अपनी औरत की तरफ से एकदम नज़र फेर बैठा है। रोक-टोक करे तो मरद की चाबुक पसलियों तक को भेद जाए.......

       दर्द की टीस भरी लहर ने रशीदन को हिला कर रख दिया, आंखें भर आईं। चूल्हे के पास अंधेरे में बैठी वह फिर सिस्कियां भरने लग जाती है।

      ”मुआ! मायके में भी तो कोई नई रा..........., जिसपै फूलकै वह पहलवान से टकरा जाती। बूढ़े डोकर-डोकरी, छप्पर-फूस की रखवाली करते-करते दुनिया से चल बसे। सगे-संबंधी भी खुसहाली के साथी होए हैं, बिपद पै कौनो साथ नहीं देता। कल अगर पैलवान घर से निकाल दे तो कोई दो निवाले रोटी तक को भी नई पूछैगा। ऐसे में अल्लामियां भी खूब हैं जो कानी कोख देकै सात आसमानों पै गुमनाम बने गुनगुनाय रै हैं और रशीदन एक बच्चे की चाह में तड़प रई है। काश! एक बच्चा होता, वोई किलक-किलक कै पैलवान को उसकी खाट तक बुलाय लेता। पर, जनमजली को तो फूट-फूट कै रोना बदा है, वह तो रोवैगी और जिनगी भर रोवैगी......कबर में भी चैन नई मिलेगा...........!“

                                                              ***********

 

      बुंदू पहलवान ने तांगे से घोड़ा खोल कर घुड़साल में लाकर बांध दिया। इस बीच घोड़े का साजसामान उसके साथ का लड़का संभाल कर जमा करने लगा, तभी घुड़साल से पहलवान ने हांक लगाई, ”रैन दे सैजादे! हथेली की खाल उधड़ जावेगी, मैं अबी आरिया हूं।सुन कर सैजादे ने अपने हाथ समेट लिए और छप्पर के अंदर वाले दरवाजे की ओर देखने लगा,जिधर से अंधेरा ही अंधेरा झांक रहा था। पहलवान के पास आते ही सैजादे ने पूछा, ”आज घर में अंधेरा कैसा है पहलवान? क्या चच्ची को मायके भेद दिया......?“

      अब पहलवान को भी अंधेरे का एहसास हुआ। साज-सामान बटोरते हुए बोला, ”देखरिया हूं कि तेरी चच्ची की आजकल नाक काफी चढ़ गई है। टाल रिया हूं, पर जिस दिन पानी सिर से लांघ गया, सुसरी की नाक काट डालूँगा बस, येई सोच के टाल रिया हूं कि सुसरी को कोई पूछने वाला भी नई रैगा। भीख मांगती फिरैगी साली.....!“

      ”बुरी बात है पहलवान!" सैजादे ने बड़े-बूढ़ों की तरह उसे समझाने की कोशिश की, “ऐसा नहीं सोचते। आखिर वह है तो तुम्हारी बीवी। उसी के साथ तुम्हारी उम्र गुज़रनी है। मेरी वजह से तुम अपनी सारी उम्र को आग लगा रहे हो। अगर मैं हूं तो तुम दोनों खुश-खुश रह सकते हो। कहता हूं कि मुझे छोड़ दो, पर तुम राज़ी ही नहीं होते.......

      ”छोड़ दूं!“ पहलवान की मोटी आवाज फट सी पड़ती है, ”कैसे छोड़ दूं........? माल खिलाता हूं, वो भी अपना.......... उस बेंचों  के मायके से तो नई ले आता। उसके बाप की कमाई से अपना सौक तो पूरा नई कर रिया हूं.......!“ वह सीधा खड़ा होकर बैल की तरह डरकाने लगा था, ”खुद कमाता हूं, मेहनत करता हूं.......जुआ नई खेलता, सराब नहीं पीता.....बोलो सैजादे! क्या गलत कहता हूं?“

      दीवार की टेक लेने के चक्कर में सैजादे की एड़ी में बबूल का कोई कांटा खुब जाता है। दर्द की सिसकारी के साथ वह जबड़े भींचकर कांटा निकालता है लेकिन उसके कानों में पहलवान के शब्दों की अनुगूंज उसे बेचैन कर देती है, “छोड़ दूं.......कैसे छोड़ दूं? माल खिलाता हूं, वो भीअपना...............शरीर में कम्पन तैर जाता है।

      वह किवाड़ की ओर लपका, तभी धाड़ से उसका माथा किवाड़ की चौखट से टकरा गया, पर उसने चोट सह ली और पहलवान को इसकी इत्तला  नहीं दी। पीछे से पहलवान बिफरे हुए जंगली भैंसे की तरह तीर जैसी गति से किवाड़ के भीतर जाकर गायब हो गया, फिर रशीदनहाय दैय्याकह कर चीखी औरसैजादासिहर उठा। तभी धम्म से आंगन में कोई वस्तु आकर गिरी, आवाज़ रशीदन की आई, ”हाय मैय्या.....हाय दैय्या मैं मरी..........अरे माडडाला हरामी ने।

      ‘सैजादाकरवट लेकर लेट गया, पर आंखों में नींद नहीं थी। कानों के पर्दों से रह-रह कर पहलवान के शब्द टकराने लगते थे, “छोड़ दूं.......कैसे छोड़ दूं? माल खिलाता हूं, वो भी अपना...उसकी आंखों की कोरें भीग गईं और ओंठ थरथराने लगे। भीगी-भीगी आंखों के सामने घर, भाई-बहन, मां-बाप, उनके बीच के जीवन की झांकियां उभरने लगीं। पश्चाताप के अंधड़ ने उसके अस्तित्व को झिंझोड़ कर रख दिया। नहीं मालूम उसके गरीब अब्बू, उसे कहां-कहां ढूंढते फिर रहे होंगे? उसे घर से भाग कर नहीं निकलना चाहिए था। कितने ही लोग हर साल फेल हो जाते हैं, क्या सभी भाग जाते हैं? भाग आने के बाद भी तो  उसे चैन नहीं मिला? क्या वह पास हो गया? पास तो तभी होगा जब वह फिर से इम्तिहान दे। पहलवान की ऐसी सोहबत में वह कैसे पढ़ाई कर सकेगा? यह तो एकदम गली के सांड जैसा है, एकदम जंगली भैंसे की तरह अपनी बीवी पर टूट पड़ता है। उफ़! रात उसने रशीदन को कितना मारा, कितना पीटा, लातों-घूंसों से उस बेचारी को अधमरा कर दिया था। वह मेमने की तरह भेड़िये के आगे मिमिया रही थी। उसने ऐसा कौन-सा जुर्म कर दिया था? यही कि उसने  लालटेन नहीं जलाई थी। यह कोई ऐसा जुर्म नहीं कि जिसकी सज़ा में उसका कचूमर ही निकाल दिया जाए। हालांकि वह उससे जलती है और सौतेली मांओं जैसा सुलूक करती है, पर रशीदन उसके लिए पिटे, या अंदर ही अंदर सुलगती रहे, यह वह हरगिज़ नहीं चाहता। लेकिन उसके चाहने से भी क्या हो सकता है। क्या अब तक जो कुछ भी हुआ, वह सब उसी के चाहने से होता रहा है, कतई नहीं। परिस्थितियों ने मकड़ी बन कर उसे अपने जाल में फांस लिया है और वह अपने कमज़ोर हाथों से उस जाल को काटने में  खुद को कितना मजबूर पा रहा है, कितना बेबस।

      ‘सैजादेको पहले दिन, जब उसे स्टेशन से पहलवान अपने घर लाया था तो रशीदन खुश हुई थी। उसने खूब-खूब खातिरें कीं, पर रात को जब पहलवान ने रशीदन की जगह उसे लिटा लिया तो रशीदन चोट खाई नागिन की तरह फुंफकार उठी। शायद उस रात रशीदन की नाभि में  डाह भरा विष छलक कर उसके कंठ तक पहुंच जाता, पर नागिन फनफना कर रह गई, क्योंकि पहलवान ने उसके संपूर्ण शरीर को अपने विशालकाय अस्तित्व से ढांप लिया था। परंतु घटना को यहीं समाप्त नहीं होना था। इसे तो कहानी में परिवर्तित होना था। सुबह होते ही घर में पहला विस्फोट हो गया।

      ”ये लौंडा घर में नई रैगा!“ ‘रशीदन चीख उठी

      ”पर अपना सैजादा यही रहेगा और वैसेई रहेगा जैसेई में चाहूंगा.........

     ”मैं जहर खायलूंगी .........“ रशीदन बरबस रो पड़ी, ”पर इस लौंडे को अपनी सौकन बना के नई रखूंगी........हां! कहे देती हूं।

      ”तो सैजादा तेरी सौकन है, तेरी तो बहन की आँख .........वह दांत पीसता हुआ रशीदन की ओर बढ़ा और उसने मुक्का हवा में उछाल दिया, ”तू कैसे नहीं रैने देगी साली.......ऐं।घूंसा रशीदन की नाक पर पड़ा और वह पीछे गिरती हुई दीवार से जा टकराई। फिर तो जैसे पहलवान पर मारते खां का भूत सवार हो गया और सैजादे ने पलकें मूंद लीं। इस घटना के बाद से रशीदन को सैजादे से भी नफ़रत हो गई।

                                                                  ******

      सैजादे लेटा-लेटा सिस्कियां भरने लगा था और रशीदन पास के पलंग पर करवट लिए सूनी-सूनी चमकीली आंखों से एकटक देखे जा रही थी। नहीं मालूम, वह इस समय क्या सोच रहा थी। पर सैजादे की घिग्घी सी बंध गई थी और आंसू भरी आंखों के आगे सब कुछ धुंधलाता जा रहा था।

      नहीं मालूम कब? सैजादे ने अपने माथे पर कोमल स्पर्श की अनुभूति की। वह आंखें मूंदे अचेतावस्था में लेटा उस स्पर्श और स्पंदन को महसूसता रहा, फिरटपसे गर्म-गर्म आंसू की कोई बूंद उसके कपोल पर पड़ी तो उसकी पलकें थरथरा कर उठ गईं। उसने देखा, उसके ऊपर रशीदन झुकी हुई है और एकटक उसे देखे जा रही है। आंसू की एक और बूंद गिरती है और सैजादे का कोमल  हृदय ज़ोर-ज़ोर से धड़कने लगता है। उसके सामने उसकी मां का चेहरा घूम जाता है। मां, भावावेश में उसके मुंह पर अपना मुंह रख कर अपने आंसुओं से उसका मुंह तर कर देती है। उसके कानों में हजारों दर्द लिए शब्द गूंज उठते हैं, ”मेरे बच्चे........मेरे लाल! काय को तू अपनी जिनगी के पीछे पड़ गया हे रे। यां से चला जा मेरे लाल......भाग जा! वैसेई.......जैसे तू अपने घर कूं छोड़ के भागा होगा।

      पहलवान की खरखराहट थम जाती है और वह भैंसे की तरह सांसें छोड़ता हुआ सैजादे की ओर मुड़ जाता है। उसकी भारी बांह सैजादे को पूरी तरह से जकड़ लेती है।

      जैसे ही  पड़ोस की मस्जिद से अज़ान कानों से टकराई, पहलवान उठ कर बैठ गया। उसने बीड़ी सुलगाई और उड़ती नज़र से पास बिछी खाट पर सोती हुई रशीदन को देखा। बीड़ी की धांस से खांस लेने के बाद उसने हांक लगाई, ”सैजादे.....जल्दी पखाने से बाहर , गाड़ी का टेम हो रिया है।

      रशीदन ने पलकों के झरोखे से पहलवान को देखा और फिर उसकी ओर से करटव फेर ली। काफ़ी देर हो जाने पर पहलवान ने पुनः हांक लगाई, ”अरे आज क्या हो गया सैजादे! कबाक हो गया क्या?गाड़ी का टेम हो रिया है भाई, सवारियां छूट जावेगी।

      आकाश पर उजास भरी नीलिमा फैलने लगी थी और चिड़ियों का कलरव गूंजने लगा था। पहलवान कुछ बेचैन सा हो उठा। उसने खाट से उतर कर तहबंद में गांठ लगाई और फिर पाखाने की ओर मुड़ गया।

      ‘सैजादावहां नहीं था।

      ‘सैजादाघर के किसी भाग में नहीं मिला। उसकी कोठरी में सैजादे के कपड़े टंगे थे, जो उसने सैजादे के लिए बनवाए थे। अल्मारी के पट भी खुले थे, जिसमें शीशा, कंघा, तेल, सुरमेदानी, धूप की ऐनक.......सब कुछ मौजूद था, पर सैजादे गायब था, उसका छोटा ब्रीफ़केस और उसके पुराने  कपड़े गायब थे, जिन्हें वह लेकर आया था। पहलवान पागलों की तरह तहबंद बांधे-बांधे घर से निकल भागा, शायद वह सैजादे को ढूंढने के लिए ही घर से निकला था और रशीदन उसे पागलों की तरह घर से बाहर जाते देखती रही थी। उसके जाने के बाद रशीदन पीठ के बल लेट गई और मुंह छत की धन्नियों की ओर कर लिया। उसका मुख एकदम ओस  से भीगे हुए ताजा खिले गुलाब जैसा हो गया था।

                                                                          ******

 

      ”हे साईं ! मान ले छोटी सरकार की बात। बुजरुग और पहुंचे हुए पीर पगारू हैं यह! इनके दरबार में फरियाद लैके आई हूं। नई सुनैगा तो मैं कडुवी निबोली की तरह डाल से टूट कै इसी जमीन में सड़-गल जाऊंगी...........“  रशीदन फिर मज़ार पर माथा टेकने पहुंची थी।

      ”उसे वापिस भेज दो। मैं मार खाय के जी लूंगी। मरद के सारे जुलम सै लूंगी। उसे सौकन बनाने को भी राजी हो जाऊंगी। सब सह लूंगी, पर यह नहीं सै सकती कि अपना मरद काम-काज छोड़ कै घर में डेरा डाल दे.......या वो मरद होयके औरतों की तरह टेसुए बहाता रै............“ रशीदन अब सिस्कियां नहीं भर रही थी, पर संवेदना-भरे स्वर में दुआएं अवश्य कर रही थी। उसने सिर उठा कर उसे पल्लू से ढका और दुआ के लिए हाथ उठा लिए।

      ”सैजादे मेरे मरद की खुसी है..............मैं अपने मरद की खुसी चाहू हूं छोटे सरकार! उसे भेज दो तो फूलों की चादर चढ़ाने आऊं, पुलाव की नियाज भी कराऊं और चांदी का ताबीज भी चढ़ाऊं। गरीब की फरियाद सुनने वाले साईं! मैं सच-सच कै रई हूं। वह अगर लौट आया तो तांगे का पहिया फिर घूमने लगैगा!   गरीब तांगे वाले का पहिया रूक जाए तो कां से खाएगा पीरदस्तगीर? वोई तो उसकी रोजी होय है। कोई औरत अपने मरद की रोजी कैसे छिनती देख सकैगी हजूर, सरकार.............उसे वापस भेज दो! मैं सब कुछ करने को तैयार हो गई हूं..............औलाद जो नहीं है !

      रशीदन फिर माथा टेक कर सिस्कियां भर-भर रोने लगी और देर तक रोती रही। सायजहां से जब रहा गया तो उसने उसे ठहोका दिया और बोली, ”रसीदन! चल, सांझ हो रही है। सूरज पछांव को पहुंच रा है। सबेरे-सबेरे पहुंच गई तो जल्दी से रोटी सेंक लेगी। आज तो तेरे पैलवान ने दोपहर में भी रोटी नई खाई.........चल उठ!“

      रशीदन ने आंसुओं से भीगे हुए मुंह पर जब दोनों हाथ फिराए तो वह अंदर से काफ़ी संतुष्ट और आश्वस्त दिखाई देने लगी थी।            

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बुधवार, 16 सितंबर 2020

SHAHRE-SOZaaN (Published Poetry Collection):By Zuhair Ahmad Zaidi


نظم/ ڈاکٹر زیدی زوہیراحمد
گٹھری کھولو
اؤ کھولیں پیار کی گٹھری
اس میں ڈھونڈھیں پیار کا بٹوا
بٹوے میں رشتوں کی تمباکو ہوگی
روشن چہروں کی کچھ یادیں ہونگیں
گٹھری کھولو !
دیکھواس میں پان، سروتا، کتھا، چونا بھی ہوگا
تمباکوکی مہک پرانی لپٹی ہوگی
شکوں کی بھی اس میں ماچس ہوگی
شاید کوئی چھوٹی ڈبیا بھی
ڈبیا میں ہی صدقے کےکچھ سککے ہونگے
لونگ کا اپنا جلوہ ہوگا, خوشبوہوگی کھول کے دیکھو
گٹھری کھولو !
ٹھہرو، گٹھری میں کچھ ہلچل سی ہے
اسکو دیکھو، خط لگتا ہے
پڑھکے بتاؤ
دور کہیں سے یہ آیا ہے
خط میں خوں کے کچھ دھببے ہیں
پڑیا میں یہ زردہ سا ہے
گٹھری میں ہلچل سی پھر ہے
کتھا، خوں سے کتنا تر ہے
گٹھری کھولو !
ھلکے بولو،
مل کر سب تفتیش کرینگے
بڑھیا ادھرگلئ میں کب آئ تھی
بٹوے میں اسنے کیا رکھا تھا
کون اسے روٹی دیتا تھا
ہندو تھی یا مسلم تھی
کسےپتہ ہےاسکےرشتےکس سےتھے
بیوہ تھی یا طلاق شدہ؟
شوھرنےکیا نکال دیا تھا
یا دنگےمیں اس نےاپنا سب کچھ لٹا دیا تھا
یا مذہب کےنام په گھرکواسکے جلا دیا تھا؟
سوال بہت ہیں،
جواب نہیں ہیں-
چھوڑو گٹھری، پولیس بلالو،شاید گٹھری خود بتلا دے- شاید وہی سراغ لگا لے-
خاکی وردی دور سے دیکھو، بےمطلب تم پھنس جاؤگے.
*********
غزل 
غزل کا راگ مغننی کو کیا  سکھاےگا
گھلیگا اس میں تبھی  وہ  ہنر دکھاے گا
,تمہاری شکل عبارت کا اک مرققه سے
یہ  آینہ ہی  تمہیں  تم سے پھر ملاےگا

 نظم   
گٹھریکھولو-
اؤ  کھولیں  پیار  کی  گٹھری 
اس میں  ڈھونڈھیں   پیار   کا   بٹوا 
بٹوے  میں رشتوں  کی  تمباکو  ہوگی 
روشن  چہروں  کی  کچھ  یادیں  ہونگیں 
گٹھری  کھولو ! 

دیکھواس میں  پان، سروتا،  کتھا،  چونا  بھی  ہوگا
تمباکوکی مہک پرانی  لپٹی  ہوگی
شکوں  کی  بھی اس میں  ماچس ہوگی
 شاید کوئی چھوٹی  ڈبیا بھی 
ڈبیا میں ہی صدقے کےکچھ سککے ہونگے 
لونگ کا اپنا جلوہ ہوگ, خوشبوہوگی کھول  کے دیکھو 
گٹھری  کھولو !

ٹھہرو،  گٹھری میں کچھ  ہلچل سی  ہے
اسکو دیکھو، خط لگتا ہے    
 پڑھکے  بتاؤ  
دور کہیں  سے یہ  آیا  ہے  
خط میں خوں کے کچھ دھببے ہیں 
پڑیا  میں یہ  زردہ  سا ہے  
 گٹھری  میں ہلچل سی  پھر  ہے  
کتھا،  خوں سے  کتنا  تر ہے 
گٹھری  کھولو ! 

ھلکے  بولو، 
مل کر سب تفتیش  کرینگے 
بڑھیا ادھرگلئ میں کب آئ  تھی
بٹوے  میں اسنے کیا رکھا  تھا
کون  اسے  روٹی  دیتا  تھا
ہندو  تھی  یا  مسلم  تھی
کسےپتہ ہےاسکےرشتےکس سےتھے
بیوہ  تھی یا  طلاق شدہ؟
 شوھرنےکیا  نکال دیا تھا 
یا دنگےمیں اس نےاپنا سب کچھ لٹا دیا تھا 
یا مذہب کےنام په گھرکواسکے جلا  دیا تھا؟ 
سوال بہت ہیں، 
جواب نہیں ہیں- 
 چھوڑو گٹھری، پولیس بلالو،شاید گٹھری خود بتلا دے- شاید وہی سراغ لگا لے- 
خاکی وردی دور سے دیکھو، بےمتلب تم پھنس جاؤگ  
*********

قطعہ 
سیاست  گر مخالف ہو تو  گھبرایا  نہیں  کرتے،
سکندر جنگ لڑتے ہیں وہ پچھتایا  نہیں  کرتے،
چلو پھرسے کوئی اک زخم کھایں اور لڈ جاہیں، 
لہو کے منجمد اوصاف کو  ڈہویا  نہیں  کرتے-  
  
قطعہ  
برف کے  دریا  میں ہم  بھی   بہ گئے 
دھوپ کی وادی میں سب کچھ سہ گئے،
وہ     زمانہ     تھا   جنون   عشق   کا،
وقت    گزرا  سارے   کھنڈر  ڈھہ   گئے
                      ***
اب  بھی   تارے   چمک   رہے   ہیں، 
١٢   بج    کر  پانچ     ہوے       ہیں- 

گھر کے  مکیں   کو   کیسے  جگاؤں،
میں   نے بھی کیا  کم  ظلم  کئیے ہیں- 

یار   میں     رسطہ   بھول   گیا ہوں،
نششیے  فکر   میں  ڈوب   گئے  ہیں-

شاید    کوئی     بت       خانہ     ہے، 
تاریکی    میں    کتنے      دے    ہیں. 

اپنی     آنکھیں     چھوڈ     آیا    جب، 
انکے    بنا   ہم    کتنا    سہے     ہیں- 
                            ****                   
غزل                      
چاندنی رات ہے بانٹ لوکچھ غم اشک  کا دریا  پاٹ  دیا
چاند ادھرہے  رفاقتوں کا   ابر  ادھر  سے  چھانٹ   دیا-

حقیقتوں کوجھٹہلانے سےجھوٹھ کو وسعت  ملتی  ہے،  
فرقہ  پرستی یوں  پھیلاکر  ہم  نے خدا  بھی  بانٹ    دیا-

اسنے کیا جب خاک په سجدہ بتخانے بھی  چونک   اٹھے'
کوہ گراں سے پتّھر  لڑھکا  اس نے بدن  کو  کاٹ   دیا -

وہ  آسا ر قدیمہ سے تھا   قصّے   بھی   گڑھ   لیتا   تھا ،
بستی میں  آتے  ہی   اس نے   شنکھ   شوالہ  بانٹ   دیا- 
  
کتنے روشن ذھن  یہاں  تھے خاک نشین  ہو گئے  زوہیر،
کتنے  برگد   یہاں  وہاں   تھے   پیپل  تک  کو  کاٹ   دیا
*****                               
                            
غزل            
وطن سے دور دعاؤں میں بار بار رہتے  ہیں،
بیگڈتے زخم محبّت میں دل  فگار رہتے  ہیں- 

ہمیں تو  اپنے  رقیبوں  سے   ڈر   نہیں  لگتا،
ہے انسے خوف جو پردے کے پار رہتے ہیں-

بشارتوں   کی   دعایں   وہ  مانگتا   تھا  صدا ،
وہ جانتا تھا کہ رشتے بھی سایہ دارھوتے  ہیں-  

لہر   تھی   نرم   مگر   تیرکر   وہ   آ ہی   گی' 
جنوں   کے     قصّے   تغافلشعار   ہوتے   ہیں- 

میں  آئینہ  ہوں   کھری  بات   کہکے  رہتا  ہوں، 
زوہیر  تجزیہ کار    ہیں  اور غمگزار رہتے ہیں-  
                        *****                      
                    
تھی  یہ  امید  کبھی  پختہ مکانی   ہوگی،
پک گئے بال مگر خواب  حقیقت نہ بنے-
**                      
نیند آے بھی تو اے رات  بتا دے  کیسے، 
کرب میں کربوبلا  اور زمیں پیا سی ہے- 
ڈاکٹر زیدی زوہیراحمد
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غزل   ١٦/٩/٢٠٢٠ 
کیسی ہے رات کتنے ستارے ہیں  غم  گسار، 
لہجے  میں  احتجاج   ہوا  میں    ہے  انتشار-

ملاح   ساحلوں   پہ  کہیں  ناؤ لے  کے  چل، 
موجوں کی زد میں ناؤ اچھلتی  ہے    بار  نار-
 
الزام    ہے   کہ   ہم   کو  محبّت   نہیں  عزیز، 
سچ یہ ہے چھین چکا ہے ہمارا  سکوں  قرار- 

وہ اب بھی سو رہا ہے کئی  جگنوں کے ساتھ،
کچھ  تتلیوں کے پنکھ سرہانے ہیں شرم مسار-

سرحد   پہ      سیرگاہ     تمننا     کہاں    زوہیر
میداں   سجا  ہوا   ہے  سپاہی  ہیں   بادہ  خوار

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सोमवार, 14 सितंबर 2020

                                                         گٹھری کھولو
نظم/ ڈاکٹر زیدی زوہیراحمد
گٹھری کھولو-
اؤ کھولیں پیار کی گٹھری
اس میں ڈھونڈھیں پیار کا بٹوا
بٹوے میں رشتوں کی تمباکو ہوگی
روشن چہروں کی کچھ یادیں ہونگیں
گٹھری کھولو !
دیکھواس میں پان، سروتا، کتھا، چونا بھی ہوگا
تمباکوکی مہک پرانی لپٹی ہوگی
شکوں کی بھی اس میں ماچس ہوگی
شاید کوئی چھوٹی ڈبیا بھی
ڈبیا میں ہی صدقے کےکچھ سککے ہونگے
لونگ کا اپنا جلوہ ہوگا, خوشبوہوگی کھول کے دیکھو
گٹھری کھولو !
ٹھہرو، گٹھری میں کچھ ہلچل سی ہے
اسکو دیکھو، خط لگتا ہے
پڑھکے بتاؤ
دور کہیں سے یہ آیا ہے
خط میں خوں کے کچھ دھببے ہیں
پڑیا میں یہ زردہ سا ہے
گٹھری میں ہلچل سی پھر ہے
کتھا، خوں سے کتنا تر ہے
گٹھری کھولو !
ھلکے بولو،
مل کر سب تفتیش کرینگے
بڑھیا ادھرگلئ میں کب آئ تھی
بٹوے میں اسنے کیا رکھا تھا
کون اسے روٹی دیتا تھا
ہندو تھی یا مسلم تھی
کسےپتہ ہےاسکےرشتےکس سےتھے
بیوہ تھی یا طلاق شدہ؟
شوھرنےکیا نکال دیا تھا
یا دنگےمیں اس نےاپنا سب کچھ لٹا دیا تھا
یا مذہب کےنام په گھرکواسکے جلا دیا تھا؟
سوال بہت ہیں،
جواب نہیں ہیں-
چھوڑو گٹھری، پولیس بلالو،شاید گٹھری خود بتلا دے- شاید وہی سراغ لگا لے-
خاکی وردی دور سے دیکھو، بےمطلب تم پھنس جاؤگے.
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बुधवार, 7 फ़रवरी 2018

क्या राजनीतिक सिनेरिओ बदलने वाला है? /डॉ. रंजन ज़ैदी

 क्या राजनीतिक सिनेरिओ बदलने वाला है? /डॉ. रंजन ज़ैदी
कथित निजी सेनाओं का शिकार रही फिल्म 'पद्मावत'
मैं स्वयं से सवाल करता हूँ कि बेरोज़गार युवा शातिर अपराधियों की कथित निजी सेनाओं का शिकार बनते रहे तो भारत के लोकतंत्र को कैसे बचाया जा सकता है ?

मोम के जिस्म निकल आये हैं तलवार लिए,
धूप  के  शह्र  भी  अब  ख़ौफ़ज़दा  लगते हैं.
डॉ. ज़ैदी ज़ुहैर अहमद

देश बेहद नाज़ुक दौर से गुज़र रहा है. कमज़ोर और अनुभव विहीन प्रतिपक्ष का नेतृत्व, अत्यंत कमज़ोर देश की फॉरेन-पॉलिसीज़, दुश्मनों से घिरता जा रहा भारत, लोकतंत्र खतरे में है.

देखो     तो      यक़ीनन   पसे-दीवर   कोई    है,
घटिया राजनीति ने भारत को विदेशों में भी  शर्मिंदा किया. 

आईनाः   बताता   है    कि     ज़ंगार   कोई   है.
डॉ. ज़ैदी ज़ुहैर अहमद

अजब ज़ुल्मतों से घिरा चाँद निश्तर,
बहुत सोच कर मैं ग़ज़ल कह रहा हूँ.

तुम उसकी सियासत से अभी भी नहीं वाक़िफ़,
फ़ित्नों  को   जिलाता है   वो   हुशियार कोई है.
डॉ. ज़ैदी ज़ुहैर अहमद

भारतीय सियासत में सियासी दलों का विपक्ष लगभग समाप्त होने की कगार पर है. कारण है विभिन्न राजनीतिक पार्टियों के निजी स्वार्थ और अवसरवादी गठजोड़ों का बेनक़ाब हो जाना. बेरोज़गार युवाओं का लगातार बढ़ना, युवाओं का अपने स्वार्थों के लिए इस्तेमाल करते रहना, अपराधों का बढ़ना, साम्प्रदायिकता फैलाकर सत्ता हासिल करना, साहित्य, इतिहास और  संस्कृतियों का ह्रास करना, प्रशासन का दुरूपयोग करना, भ्रष्टाचार व
अपराधियों को राजनीतिक संरक्षण देना, किसी भी स्थिति में विपक्ष का निरंतर मौन रहना एक खतरनाक प्रवृति को बढ़ावा देने के सामान है, जिससे भारतीय लोकतंत्र खतरनाक और घने जंगल में प्रवेश करता प्रतीत होने लगा  है. दिल्ली में भारी बहुमत से जीती आम आदमी पार्टी यानी 'आप' की सरकार का बीजेपी सरकार ने जो हाल कर रखा है, वह किसी से छुपा नहीं है. 'आप'  सरकार, केन्द्रीय सरकार की अनेक एजेंसियों के डर के साये में जी रही है. इन सबके बावजूद एक नई सियासी पार्टी अपनी नयी सोच को लेकर आगामी चुनाव में बहुजन समाज को साथ लेकर चुनाव के दरवाज़े पर दस्तक देने जा रही है. उसकी दहाड़ गूँजने भी लगी है....;बहुजन समाज की बढ़त का ज़िम्मेदार देश का तथाकथित सवर्ण वर्ग है. 
      क्या राजनीतिक सिनेरिओ बदलने वाला है? 
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रविवार, 21 जनवरी 2018

Nazm/ / مردوں کا فیصلہ by DR. ZAIDI ZUHAIR AHMAD,


مردوں کا فیصلہ  
 / DR. ZAIDI ZUHAIR AHMAD,


.جب فائرنگ ہوی  تب اندھیرا تھا'
 گولیوں کی رکابوں میں
 تعصّب کےنوحہ خانوں میں 
دھدھکتی آگ کے زندانوں میں
 پرندوں کی چیخیں آسمانوں میں
 سوچو! تم کیا کر سکتے ہو?

تیمور کے آنے پر بھی
 ایسا ہوا تھا.
نادرشاہ ابدالی کے آنے پر بھی 
بہت سا خون بہا تھا
  تواریخ کے صحیفے ابھی بھی خونآلود  ہیں 

دیللی تو لٹتی رہی  ہے
یاد کرو غدر کی دیللی
باغیوں کی ننگی تلواریں 
آزادی کے نام نحاد  نعروں  کے ساتھ  
لٹتے ہوے دیللی کو
باغی تو اپنے تھے وہ بھی    
 انگریزوں کے شکار ہوے 

تم  کسی اننآ کو نہیں جانتے
خوفزدہ اننایں بچچوں کو لیکر
کووں میں کودتی رہی ہیں
دیللی لٹتی رہی ہے   
دیللی سے لیکر گجرات تک 
دردناک حادثے ہوتے رہے ہیں.
اندھیروں کے جرم  کبھی نظر نہیں آتے
قانون اندھا ہوتا ہے.
باپ کے سامنے بیٹی کی عصمتدری 
بیٹی کے سامنے باپ کا قتل
تم گواہی دوگے
شاید نہیں
     
یہ حیوانیت ختم نہیں ہوگی 
جنگل اور تہذیب کی شکلیں بدلتی رہتی ہیں
خدا آلملغیب ہے جانتا ہے 
 کبھی کچھ نہیں کہیگا
ظالم کو تاجدار بنا دیگا مظلوم کودعا کا طلبگار 
اقتدار کی جنگ کے فلسفے ایسے ہی ہوتے ہیں    
- / DR. ZAIDI ZUHAIR AHMAD (ممبئی) 
                                                                                      चलो काँधे पे रखकर हाथ 

दुनिया देखलें फिर से.
चलो हम ज़िन्दगी की नाव में
कुछ क़हक़हे भर लें.  
चलो कुछ ख्वाब ही बुन लें,
चलो फिर जुगनुओं से मुट्ठियाँ भर लें. 
चलो फिर हौसला कर प्यार की
कुछ  चिट्ठियां  लिख लें.
 जाने कल ज़मीं का कौन सा टुकड़ा
हिले और ख्वाब बन जाये।
रंजन ज़ैदी



शनिवार, 30 दिसंबर 2017

देश का युवा क्या राजनीतिक बदलाव ला सकता है.../ रंजन ज़ैदी

राहुल गाँधी कांग्रेस के अध्यक्ष बन चुके हैं, बहन प्रियंका उनकी अघोषित सलाहकार. संभव है, 2019 का वह चुनाव भी लड़ें। राहुल अब घोषित हिन्दू बन चुके हैं यानि, वह देश के प्रधान मंत्री बनने की कवायद में अब अगली क़तार में आ चुके हैं. यदि क़िस्मत ज़ोर मार दे तो वाड्रा और उनकी बेटी भी राजनीति में आ जाएगी.

सवाल उठता है कि क्या कांग्रेस अब एक कंपनी बनकर रह गई है? क्या अब राहुल के इर्द-गिर्द जो चेहरे नज़र आने लगे हैं, वे कांग्रेस को आक्सीजन दे पाएंगे ? कांग्रेस तो एक मने में बीमार हो चुकी है. गुजरात के युवाओं ने उसे ज़िंदा रखने के लिए वेंटिलेटर ज़रूर उपलब्ध करा दिया था. इसके बावजूद कांग्रेस सत्ता में नहीं आ सकी. वास्तविकता यह है कि कांग्रेस को ऐसे बूढ़े राजनीतिक पंडितों के साये चारों  ओर से घेरे हुए हैं जो बाहर की ताज़ी हवा को अंदर नहीं आने देते और न ही भविष्य में आने देंगे, तब कांग्रेस कैसे ज़िंदा रहेगी?

यह सच है कि इस देश का युवा देश में बड़ा राजनीतिक व सामाजिक बदलाव ला  सकता है लेकिन वह क्रांति नहीं ला सकता क्योंकि बूढी सियासत उनपर भरोसा नहीं करती है. 

जयप्रकाश नारायण ने रास्ता सुझाया था तो भ्रष्ट नेताओं की जमात आगे आ गयी थी और देश का रास्ता राहुल गाँधी का कॉकस भी अभी से आमजन को उन तक नहीं पहुँचने दे रहा है. इंदिरा गाँधी को भी इसी तरह के कॉकस ने घेरे में ले रखा था, इमरजेंसी लगी, वह दिवंगत भी हुईं, राजीव गाँधी भी शहीद हो गए. लगा, नेहरू परिवार किसी अंतर्राष्ट्रीय षड़यंत्र का शिकार होता जा रहा है. तो, जो कांग्रेस की देही  इलाक़ों में आम जनता जी ज़मीन में जड़ें थीं, वे हर आने वाले दिन में सूखती जा रही थीं. सोनिया गाँधी ने अपनी पूरी ताक़त के साथ  संघर्ष किया, कांग्रेस को बचाये भी रखा लेकिन कांग्रेस के भीतर तो उसे ख़त्म कर देने की  निरंतर साज़िशें जारी थीं. एक के बाद एक झूठे सच्चे स्कैम सामने आते जा रहे थे.
गुमरही का शिकार हो गया. नतीजे आपके सामने हैं.

एरोस्ट्रोक्रेट राहुल गाँधी ने राजनीति में आकर देश को ऐसी नज़र से देखा जैसी नज़र से शहज़ादे (मेरी एक पत्रकार दोस्त उसे अब भी शहज़ादा ही कहती है) देखते हैं, रईस बाप के बेटे देखते हैं. वह किसी ग़रीब बूढी स्त्री को गले नहीं लगाते थे बल्कि जानने की कोशिश करते थे कि ग़रीब लोग होते कैसे हैं? जो झोपडी का मॉडल उनके ड्राइंगरूम में डेकोरेशनपीस बना था, वह असलियत में कैसा लगता है. उनके लिए राजनीति कोई माने नहीं रखती है, रखती होती तो वह बीजेपी की आँधी को अपने प्रदेशों की सरहदों पर ही रोक लेते. उनके वफादार स्वयं सेवक मोदी के हर फ्लॉप इवेंट का विरोधकर सड़कों पर फैल जाते, सरकार से ब्लैक मनी  के एक एक पैसे का हिसाब लेते, हिन्दू-मुस्लिम की नौटंकियों वाली सियासत को समझ जाते कि मोदी योजनाबद्ध होकर हर दिन देश की जनता को उलझाए रखना चाहते हैं, सत्याग्रह करते कि ईवीएम के माध्यम से चुनाव नहीं होंगे.  लेकिन देश के 19 राज्य देखते-देखते बीजेपी की झोली में चले गए और कांग्रेस कुछ भी नहीं कर सकी.

आश्चर्य यह है, राहुल गाँधी ने तो देश को यह भी नहीं बताया कि वह सत्ता में आकर करेंगे क्या? बीजेपी से टक्कर लेंने की उनकी क्या योजनाएं हैं? कैसे देश के लोकतंत्र की वह हफ़ाज़त करेंगे? क्या मंदिरों में साष्टांग कर वह देश के 20  करोड़ मुसलमानो के ज़ख़्मी दिलों को जीत सकेंगे? क्या दलितों, शोषितों, पिछड़ों और पीड़ित आदिवासियों को अपने शासन में नई  जन्नतें दे सकेंगे? क्या महिलाओं को सुरक्षा और उन्हें उनके विकास के मौलिक व क़ानूनी अधिकार दे सकेंगे? शायद नहीं! उन्होंने ऐसे सपने शायद नहीं देखे होंगे क्योंकि वह बहुत जल्द थककर कहीं भी सो जाते हैं. ऐसे माहौल में भाई नरेंद्र मोदी ज़रूर सपनों के सौदागर बनकर  19 राज्यों पर अपना झंडा गाड़ चुके हैं.

एक बात महत्वपूर्ण यह है कि कांग्रेस की विरासत वस्तुतः भय की सायिकी से ग्रस्त है. प्रिंयंका वाड्रा  भी इसी सायिकी का शिकार है. राहुल के अध्यक्ष बनने और सोनिया गाँधी के बीमार रहने अब प्रियंका के राजनीति  में आने की सम्भावना कुछ बढ़ गई है और उसके साथ-साथ वाड्रा और उसकी बेटी भी राजनीति  में क़िस्मत आज़माने की तैयारी करने लगे हैं.  लेकिन कांग्रेस फिरसे अपने पैरों पर खडी हो पायेगी, मुझे इसमें उम्मीद कम ही नज़र आती है.@ranjanzaidi786,https://ranjanzaidi786@yahoo.com,Mob; +91 9350 934 635      

गुरुवार, 28 दिसंबर 2017

जन्म-दिवस पर विशेष:ग़ालिब का असली नाम असदुल्लाह खां था/.. डॉ.रंजन ज़ैदी

मिर्ज़ा ग़ालिब का असली नाम असदुल्लाह खां था. उनके तूरानी वंशज शाही परिवार सिल्जोती तुर्क नस्ल से थे जिनमें बादशाह अफरासियाब और पुशुंग के किस्से, प्राचीन ईरान की लोककथाओं और फारसी कहानियों में बेहद प्रचलित रहे हैं. एक कते में ग़ालिब स्वीकारते भी हैं-

के-साकी चो मन पुश्नगी  व्  अफ्रासियाबीम,
वाली के अस्ले-गौहरम अज दूदए-जिम अस्त.

जब बादशाह हुमायूँ बाकायदा दिल्ली के तख़्त पर बैठा तो उसने अपने हितैषियों में तूरानी तुर्कों कों भी सम्मानित किया. इन्हीं में ग़ालिब के पूर्वज भी एक थे जो बाद में बादशाह से अनुमति लेकर आगरा में आकर बस गए. ग़ालिब इसी वंश से सम्बंधित रहे हैं. 
1796 में आगरा (उ.प्र.) निवासी अब्दुल्लाह बेग के घर जब उनके बेटे ने जन्म लिया, तब वह रियासत अलवर के महाराजा बख्तावर सिंह की सेना में नौकरी  करते थे. जिस समय असदुल्लाह 5 वर्ष के हुए, उनके पिता एक सैनिक मुहिम के दौरान दुश्मन की गोली से मारे गए. इस स्थिति में उनके लालन-पालन की जिमेदारी उनके चचा मिर्ज़ा नसरुल्लाह बेग पर आ गयी, किन्तु 4 वर्ष बाद वह भी अल्लाह कों प्यारे हो गए. तालीम के नज़रिये से मिर्ज़ा को बचपन में ही फ़ारसी मूल के विद्वान् अब्दुल्समद कों फारसी पढ़ाने के लिए नियुक्त किया गया. 

अब्दुल्समद ने ग़ालिब कों फारसी में इतना पारंगत कर दिया था कि वह फारसी में शाएरी करने लगे.
ऐसा देखकर विद्वान् आश्चर्य-चकित रह गए. (आज भी कहा जाता है कि ग़ालिब मूलतः फारसी के आला दर्जे के शायर थे लेकिन उनकी फ़ारसी शाइरी पर (उर्दू के मुक़ाबले) गंभीरता से शोध नहीं किया गया. हालांकि ईरान में ग़ालिब की फ़ारसी शाइरी पर बहुत काम किया गया है. अब तो उर्दू अदब में ग़ालिब की शाइरी और शख्सियत पर बहुत काम किया जा रहा है.

ग़ालिब खुद कों फारसी का शाएर मानते थे और फारसी के बुलंद शायरों में वह अमीर खुसरो और फैजी की ही प्रशंसा करते थे. उनकी फारसी-विद्वता से प्रभावित होकर रामपुर रियासत के छोटे नवाब यूसुफ अली खां कों फारसी पढ़ाने के लिए ग़ालिब कों नियुक्त किया गया. कालांतर में जब नवाब यूसुफ अली खा गद्दी पर बैठे तो उन्होंने सौ रूपये आजीवन पेंशन के बाँध दिए जो उन्हें बराबर मिलते रहे. 5./-प्रतिमाह उन्हें शाही किले से (1850-57 तक मिलते रहे. 

नसरुल्लाह बेग की संपत्ति से जो आय अर्जित होती थी उसमें तीन लोगों का हिस्सा लगता था, ग़ालिब के भाई मिर्ज़ा यूसुफ, उनकी मां और ग़ालिब. प्रत्येक के हिस्से में रकम (750/- रूपये सालाना) पेंशन के रूप में आती थी जो की 1857 के विद्रोह के समय तक आती रही. 1857 के विप्लव के दौरान ये पेंशन 3 वर्षों तक बंद रही, बाद में जब स्थिति अनुकूल हुई तो ये फिर शुरू हो गयी और जो 3 वर्षों का एरिअर था, वो भी वसूल हो गया. 

13 वर्ष की आयु में विवाह हो जाने के कारण उनका दिल्ली से रिश्ता जुड़ गया था और वह दिल्ली आने-जाने लगे थे. कालांतर में अंततः ग़ालिब किराये के मकानों में रहते-बसते दिल्ली स्थित मोहल्ला बल्लीमारान में उम्र के आखरी पड़ाव तक बेस रहे.  दिल्ली में ग़ालिब कों मिर्ज़ा नौशा के नाम से भी पुकारा जाता था. इसका कारण ये था कि उनकी ससुराल दिल्ली में ही थी और उनके दिल्ली निवासी ससुर नवाब इलाही बक्श, मारूफ उपनाम से उर्दू जगत में अपनी अच्छी पहचान और इज्ज़त रखते थे. यहीं रहते हुए असदुल्ला खा, मिर्ज़ा ग़ालिब बने और मिर्ज़ा ग़ालिब बनकर शोहरत की बुलंदियों कों छुआ. उनकी शोहरत और अजमत का अनुमान इस बात से भी लगाया जा सकता है कि उन्हें बादशाह बहादुरशाह ज़फर द्वारा नजमुद्दौला, दबीरुल्मुल्क, निज़ामेजंग जैसी उपाधियों से सम्मानित किया गया था. इन पुरस्कारों की उन दिनों बड़ी अहमियत हुआ करती थी.


      ग़ालिब दिल्ली की उस गंगा-जमुनी संस्कृति का प्रतीक थे जो उर्दू ज़बान की पहचान हुआ करती थी. उनके शिष्यों में मुंशी हरगोपाल तुफ्ता जैसे हिन्दू जाति से सम्बन्ध रखने वाले शाएर भी थे और मौलाना हाली, मुस्तफा खां शेफ्ता मैकश और जौहर जैसे मुसलमान भी. मैकश और जौहर के बारे में ग़ालिब ने फारसी रुबाई तक कही-
ता मैकशो-जौहर दो सुखनवर दारैम,
शान-ऐ-दीगर व् शौकते-दिगर दारैम. 

कभी उन्होंने दोनों के बीच कोई अंतर महसूस नहीं किया. वह अपने दूर-दराज़ के शागिर्दों के पत्रों का उत्तर अवश्य देते थे. इसके लिए (हालाँकि) उन्हें डाक-टिकटों को काफी तादाद में खरीदना पड़ता था, फिर भी वह इसमें संकोच नहीं करते थे. यदि कोई जवाब के लिए टिकट साथ भेज देता था तो वह नाराज़ हो जाते थे. 

उनके शागिर्दों में मीर मेहदी हुसैन मजरूह, मीर कुर्बान अली सालिक, मिर्ज़ा हातिम अली मेह्र, मिर्ज़ा जियाउद्दीन अहमद खां नय्यर, नवाब अलाउद्दीन खां इल्लाई रईस लोहारू आदि. यही ग़ालिब के शानदार स्वभाव की पहचान थी और उनके संभ्रांत होने का प्रमाण भी. वह जब भी किसी संभ्रांत व्यक्ति से मिलने जाते थे तो वह उनका तहे-दिल से स्वागत करता था. 

ग़ालिब के क़िस्सों से उनके सैकड़ों क़िस्से जुड़े हुए हैं. ऐसा ही एक मशहूर क़िस्सा दिल्ली कालेज से जुड़ा हुआ है. एक बार दिल्ली कालेज में फारसी-प्रोफ़ेसर के पद के लिए प्रशासन ने ग़ालिब को भी न्योता दिया. मिर्ज़ा ग़ालिब सज-धज कर पालकी से कालेज के फाटक तक जा पहुंचे. देर तक इंतजार करते रहे कि उन्हें रिसीव करने कोई आएगा, पर कोई नहीं आया. इससे उन्होंने खुद को काफी अपमानित-सा महसूस किया. उन्होंने देर बाद कहार से वापस लौट चलने के लिए कह दिया. इस बात की खबर जब अँगरेज़ प्रिंसिपल को लगी तो वह स्तब्ध रह गया. 

अँगरेज़ प्रिंसिपल ने ग़ालिब को सन्देश भिजवाया कि प्रशासनिक-व्यवस्था में उनका औपचारिक स्वागत संभव नहीं था. क्योंकि ग़ालिब कालेज में ब-हैसियत कैंडिडेट गए हुए थे न कि शाएर मिर्ज़ा ग़ालिब. यही उनकी खुद्दारी थी. जिसने उन्हें उम्र के आखरी दिनों में बहुत परेशान किया. कान से भी ठीक से सुनाई नहीं देता था और स्वभाव में मलंगीपन तक आ गया था.

मैं  अदम से  भी परे हूँ,  वरना गाफिल!  बारहा/ 
मेरी आहे-आत्शीं से बाले-उनका(unqa) जल गया. 

इस शेर में ग़ालिब ने उन लोगों को संबोधित किया है जो ब्रह्म-ज्ञान अर्थात खुद-शनासी को नहीं समझते, कहते हैं कि मैं मुल्के-अदम से दूर जिंदगी और मौत की हदों से दूर निकल चुका हूँ. जब मैं इन सीढियों को पार कर रहा था तो अक्सर ऐसा हुआ कि बुलंद गर्दन मेरी पस्ती से भी अधिक महसूस होती रही और मेरी सोजे-मुहब्बत ने उसकी शोहरत के पंख जला दिए थे. उनकी मायूसियों ने उन्हें इसक़दर बेजार कर दिया था कि उन्हें इसका इज़हार तक करना पड़ा.

मैं हूँ और अफसुर्दगी की आरज़ू ग़ालिब! के दिल/
देख  कर  तर्ज़े-तपाके  अहले  दुनिया जल गया.

यानी, दुनियावालों द्वारा की जाने वाली उनकी उपेक्षा और उनके प्रति की जाने वाली व्यवहारिक उदासीनता से वह इतने क्षुब्ध हैं की अपनी स्वभावगत खुशियों से ही वह विरक्त हो गए हैं. अब तो हाल ये है की उदासी ही अज़ीज़ हो गई है और वह चाहते है कि ऐसे ही उदास रहें.क्योंकि जब-जब वह खुश रहने की जुर्रत करते हैं तो दुश्मन उनकी जान लेने पर उतारू हो जाते हैं. 'सुभ: करना शाम का, लाना है जूए-शीर का।' 
कावे-कावे से तात्पर्य प्रयास और प्रयत्न है। जूए-शीर का लाना अर्थात कठिन कार्य। गालिब फरमाते हैं  कि तन्हाई और बेकसी के आलम में सख्त जान बनकर जो मुसीबत झेल रहा हूँ, समझ लो कि इस शाम-ऐ-गम का अंत उतना ही मुश्किल है जैसा कि फरहाद के लिए पहाड़ को चीर कर दूध की नहर निकालना एक कठिन कार्य था। शेर का साधारण अर्थ तो यही था। किंतु दूसरी पंक्ति में एक अर्थ और भी छुपा हुआ है। कोहकन की मौत थी, अंजाम जूए-शीर का। अर्थात जूए-शीर लाने में सफल होना कोहकन के लिए मृत्यु का संदेश साबित हुआ। इस प्रकार मैं भी इस शाम-गम को मर कर ही ख़त्म कर सकूंगा। @ranjanzaidi786