गुरुवार, 2 अक्तूबर 2014

ग़ज़ल/ख्वाब....... /डॉ. रंजन ज़ैदी*


ग़ज़ल/तेरी कशिश में/ डॉ.रंजन ज़ैदी

लफ़्ज़ों का बाज़ार  सजा है, बेच ले   हर   मौसम  का  ख्वाब.
हुनरवरों    का    ये    मेला    है, संभल  के लेना- देना ख्वाब.

नन्हीं - नन्हीं  डिबियां रखले, रखले  उनमें  रस्मो - रिवाज,
उम्र की गलियां कब सो जाएँ, आजाये कब मौत का   ख्वाब.

ख्वाबों  की  ताबीर  पे  हम  तनक़ीद को मोहलत दे तो दें,
लेकिन ऐ दिल इन आँखों से देखें  कैसे, क्या - क्या  ख्वाब.

शजर-शजर से पूछ  न  लेना   हिज्र के  पत्तों  का  मौसम,
डरा-डरा  है शाख  का  पत्ता,  डरा  है  हर  पेवस्ता  ख्वाब.

आंसू,  यादें   खंडहर-खंडहर,  ज़ख़्मी   साये,    जलती   धूप,
हिज्र में सोना,वस्ल में जगना, अब न दिखा यख़बस्ता  ख्वाब.
Copyright :डॉ. रंजन  ज़ैदी*

रविवार, 28 सितंबर 2014

अब सारी तहज़ीबें चुप हैं/ग़ज़ल/डॉ.रंजन ज़ैदी



अब सारी तहज़ीबें चुप हैं/ग़ज़ल/डॉ.रंजन ज़ैदी *

किसके खौफ से सहमी-सहमी, किसकी याद में खोई है.

भीगे   वर्क   से   लिपटी   तितली जाने कब से  सोई  है.


क़तरा-क़तरा   गलते-गलते   शबनम    आंसू  बन बैठी, 
 
रात की शोरिश आग  जलाये   लोरी  सुनकर   सोई   है.


माँ सिरहाने  बैठी  कब से  आँचल  में  इक  चाँद  लिए, 
 
हर  दस्तक  पर  वह  सुबकी  हैहर आहट पर रोई है.


बाढ़  में  सब  कुछ  ऐसे  डूबाजैसे  नूह   का   तूफ़ां हो,

चश्मे-ज़दन में बर्फ पिघलकर, बादल   से   टकराई   है.


सारा   जंगल    बहते-बहते    मेरी  नाव  में      बैठा, 
 सारी   तहज़ीबें   अब  चुप हैं,   कैसी  आफ़त  आई   है.


कोई      तितली,   फूल जूड़ा, खुशबू में भी बेकैफी,

सूखे पत्तों    की    कब्रों   पर, बस्ती कितना   रोई   है.
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कॉपीराइट : ग़ज़ल/डॉ.रंजन ज़ैदी *

मैंने झील की तह में देखा../ डॉ.रंजन ज़ैदी*


मैंने झील की तह में देखा../ डॉ.रंजन ज़ैदी*
खून से लथपत तलवारों का हर दरिया से रिश्ता था।
लेकिन वो  मिटटी  में  रहकर अपने नग्मे बोता था।
मैंने झील की तह में देखा आंसू का इक   चश्मा था,
एक परी थी शहज़ादा था, रोज़ी का कुछ मसला था।
वो अक्सर आईना  रखकर खुद से  बातें  करता था,
हद्दे-उफ़ुक़ पर कोई परिंदा उसको  तकता रहता था।
घर की चौखट पर दो आँखें शाम ढले तक ज़िंदा थीं,
एक  परिंदा  जब  घर  लौटा, ​बस्ती में सन्नाटा था।
तेज़ हवा  का हरइक झोंका पूछे आकर एक  सवाल,
छतरी  खोले  बूढा  बरगद  बारिश से क्यों डरता था।
कितनी कब्रें, कितने कत्बे, उजड़ी बस्ती, उजड़े लोग,
झील  के  ठहरे  पानी  में भी चाँद  उतरकर रोता था।
Copyright ;डॉ.रंजन ज़ैदी*         ---------------